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मैंने कश्मीर में जीसस की कब्र देखी है। वे सूली पर नहीं मरे थे। यह एक षड़यंत्र था, जिसमें जानबूझकर देर की गई।
जीसस को शुक्रवार के दिन सूली दी गई थी। शुक्रवार के बाद तीन दिन तक यहूदी कोई कार्य नहीं करते थे, इसलिए पान्टियस पायलट ने शुक्रवार का दिन चुना था और जीसस को सूली देने में जितना विलंब किया जा सकता था, उतना विलंब किया गया।
और तुमको पता होना चाहिए कि यहूदियों का सूली देने का ढंग ऐसा है कि इसमें किसी भी व्यक्ति को मरने में 48 घंटे का समय लगता है। क्योंकि जिस व्यक्ति को सूली दी जाती है, उसे वे गरदन से नहीं लटकाते हैं।
व्यक्ति के हाथों व पैरों पर कीलें ठोंक दी जाती हैं, जिस कारण बूंद-बूंद कर खून टपकता रहता है। इस प्रकार एक स्वस्थ व्यक्ति को मरने में 48 घंटे का समय लग जाता है।
और जीसस की आयु मात्र 33 वर्ष थी...पूर्णतया स्वस्थ। वे छह घंटों में नहीं मर सकते थे। कभी कोई छह घंटों में नहीं मरा। लेकिन शुक्रवार का सूरज डूबने लगा था, अतः उनके शरीर को नीचे उतारा गया। क्योंकि नियमानुसार 3 दिन तक कोई कार्य नहीं होना था।
और यही षड़यंत्र था। उन्हें एक गुफा में रखा गया, जहां से उन्हें चुरा लिया गया और वह बच निकले। इसके पश्चात जीसस काश्मीर (भारत) में ही रहे। यह कोई खास बात नहीं है कि पंडित जवाहरलाल नेहरू की नाक, इंदिरा गांधी की नाक यहूदियों जैसी है।
हजरत मूसा की मृत्यु काश्मीर में हुई। और जीसस भी काश्मीर में मरे। जीसस बहुत लंबे समय तक जीए। 112 वर्ष की आयु में उन्होंने शरीर छोड़ा।
मैं उनकी कब्र पर गया हूं। आज भी इस कब्र की देखभाल एक यहूदी परिवार करता है। काश्मीर में यही एकमात्र ऐसी कब्र है, जो मक्का की दिया में पड़ती है। अन्य सभी कब्रें वहां मुसलमानों की हैं।
मुसलमान मृतकों के लिए कब्र इस तरह बनाते हैं कि कब्र में मृतक का सिर मक्का की दिया में हो। काश्मीर में केवल दो कब्रें ऐसी हैं, एक जीसस की और दूसरी मूसा की, जिनका सिरहाना मक्का की ओर नहीं। और कब्र पर जो लिखा है वह स्पष्ट है।
यह हिब्रू भाषा में है। और जिस "जीसस' नाम के तुम अभ्यस्त हो गए हो, वह उनका नाम नहीं था। यह नाम ग्रीक भाषा से रूपांतरित होकर आया है। उसका नाम जोसुआ था।
और अभी भी उस कब्र पर यह सुस्पष्ट रूप से लिखा हुआ है कि महान धर्म शिक्षक जोसुआ जूडिया से यात्रा कर यहां आए। वे वहां 112 वर्ष की आयु में मरे, तथा दफनाए गए।
लेकिन यह अजीब बात है कि सारे पश्चिमी जगत को मैंने यह बताया है, फिर भी पश्चिम से एक भी ईसाई यहां आकर इस कब्र को नहीं देखना चाहता है। क्योंकि यह उनके पुनर्जीविन के सिद्धांत को बिलकुल गलत सिद्ध कर देगा.
और मैंने उनसे पूछा कि यदि वे फिर से जीवित हो उठे थे तो वे कब मरे? तुम साबित करो, तुम्हें साबित करना होगा। निश्चय ही बाद में उनकी मृत्यु हुई होगी.
अन्यथा वे अभी भी यहीं कहीं घूमते होते। उनके पास जीसस की मृत्यु का कोई विवरण नहीं है।
(फिर अमरित की बूंद पड़ीं) सद्गुरु ओशो।।

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