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न्याय की उम्मीद में दम तोड़ चुके एक मर्द की
ये अर्थी समाज के कंधों को बड़ी भारी लगेगी।

झूठे दहेज उत्पीड़न के मुकदमे, दहेज हत्या जैसा ही एक क्रूर अपराध है पर अगर पुरुषों पर आरोप लगते ही उन्हें अपराधी मान लिया जाएगा तो समानता और न्याय की लड़ाई लड़ेगा कौन?

अतुल सुभाष की दुखद मृत्यु अचानक नहीं है बल्कि उन्हें कानून और न्यायालयों का ये सच पता था, उन्हें पता था कि वो उस लड़ाई का हिस्सा बना दिए गए हैं जहां न्याय के लिए कोई जगह ही नहीं है।
खुद पे लगे आरोप के मानसिक उत्पीड़न के साथ–साथ, सैंकड़ों बार कोर्ट में अपराधियों की तरह खड़े होना, अपने माँ – बाप और परिवार के लिए अपमानजनक शब्दों को सुनना किसी भी मर्द को तोड़ सकता है। ये सोच कर ही एक पिता परेशान हो जाता है कि उसके बच्चे अब उसके साथ नहीं रहेंगे, अपने ही बच्चों से मिलने के लिए उसे आजीवन कोर्ट के कागजों का मोहताज होना पड़ेगा फिर उसके बाद जीवन का कोई खास महत्व रह नहीं जाता।

हम महिला अधिकारों की बात करते हैं पर महिलाओं को अधिकार देने के लिए पुरुषों से अधिकार छीनने की जरूरत नहीं है, नारीत्व का सम्मान कहीं से भी पुरुषार्थ के अपमान से संबंधित नहीं है।
आधुनिक नारीवाद, पुरुष नहीं बल्कि समाज को शक्तिविहीन करने की ओर एक आत्मघाती कदम है जिस पर लगाम लगानी होगी।

दहेज उत्पीड़न के मामले में अपराधियों को सजा और पीड़ितों को न्याय मिले न कि करोड़ों की ऐलिमनि, समाज में कई ऐसी झूठी मुकदमा भी डर होते हैं जो नीचे दिए गए कुछ अखबारों के विज्ञप्ति बयां करती है

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