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यहीं कहीं
मुसाफ़िर हूँ। पिछले 33 साल से देख रही हूँ लोगों के हाथ। पहले हाथ में कोई किताब थामे मिल जाता था चलते हुए। रेलगाड़ियों में ऊपर वाली बर्थ पर लेटकर मनोज पॉकेट बुक्स का कोई उपन्यास पढ़ते हुए न जाने कब मंजिल करीब आ जाती।गर्मी की तपती दोपहरी में कोई महिला पंखे के नीचे लेटकर सरिता और गृहशोभा पढ़ना एक सुखद अनुभूति का अनुभव करती थी। हाय मैं शर्म से लाल हुई और बात ऐसे बनी जैसे लेख होठों पर बरबस ही मुस्कान खींच लाते। मुंशी प्रेम चंद,अमृता प्रीतम न जाने कितने लोग़ों को अनकी सच्चाइयों से जोड़ जाते। किताबें आज भी हैं और बेहतरीन लेखक आज भी लिख रहे हैं पर किताबें थामने वाले हाथों में मोबाइल आ गए। किताबें यहीं कहीं आपके आसपास आपका इंतज़ार कर रही हैं। इनको उठाकर पढ़िये। सच में एक शांति मिलेगी #अमरत्व
आभार महुअ खबर

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