जहाँ आंखों से रास्ता न दिखे, वहाँ दिल की रोशनी ही मंज़िल तय करती है।
हिमाचल प्रदेश के किन्नौर ज़िले के एक छोटे से गांव ‘छांगो’ से निकलकर छोंजिन अंगमो ने ऐसा काम कर दिखाया है, जिस पर पूरा देश गर्व कर रहा है। 29 साल की अंगमो भारत की पहली नेत्रहीन महिला बनी हैं, जिन्होंने दुनिया की सबसे ऊंची चोटी, माउंट एवरेस्ट पर तिरंगा फहराया।
बचपन में एक दवा के रिएक्शन की वजह से आंखों की रोशनी चली गई थी। लेकिन सपनों की चमक कम नहीं हुई। परिवार ने हार नहीं मानी, और अंगमो ने भी हर मुश्किल को चुनौती मानकर आगे बढ़ना सीख लिया। उन्होंने लेह के महाबोधि स्कूल में पढ़ाई की, दिल्ली के मिरांडा हाउस से ग्रेजुएशन किया, और फिर पहाड़ों से दोस्ती कर ली।
पहले फ्रेंडशिप पीक, फिर लद्दाख की चोटियाँ, सियाचिन पर ‘ऑपरेशन ब्लू फ्रीडम’, और अब एवरेस्ट। एक-एक चढ़ाई ने अंगमो के हौसले को और मज़बूत किया।
जब वे एवरेस्ट की चोटी पर पहुँचीं, तो साथ में तिरंगा, उनकी टीम, और आंखों में एक सपना था — हर विशेष रूप से सक्षम व्यक्ति के अंदर ये विश्वास जगाना कि अगर हिम्मत हो, तो कुछ भी असंभव नहीं।
अंगमो कहती हैं, "यह सिर्फ एक कदम है... मेरा सपना है कि हर दिव्यांग को अपनी ताकत का एहसास हो।"
उनकी सफलता सिर्फ एक व्यक्तिगत उपलब्धि नहीं है, बल्कि लाखों लोगों के लिए एक प्रेरणा है। उनके पिता कहते हैं कि जिस तरह उनका गांव बर्फीले रेगिस्तान में एक हरियाली की तरह है, वैसे ही अंगमो पूरे परिवार और गांव के लिए उम्मीद की एक हरियाली बन गई हैं।
आज जब वे घर लौटेंगी, तो उनका स्वागत सिर्फ तालियों से नहीं, मां के हाथों से तोड़े गए ताज़े सेब से होगा — उस बेटी के लिए, जिसने देश के साथ-साथ हर दिल को जीत लिया।
छोंजिन अंगमो की कहानी हमें ये सिखाती है — कि रुकावटें सिर्फ बाहर की नहीं होतीं, और अगर हौसला मजबूत हो, तो हर चोटी छोटी लगती है।
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