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मनुष्य का अधिकांश जीवन, प्रतीक्षा का जीवन है।
प्रतीक्षा मोह जनित अवयवों का समुच्चय है।
प्रतीक्षा का परिणाम निराशा भी हो सकती है।
इसलिये ईश्वर ने गीता में मोहरहित कर्म का उपदेश दिया।
कर्म में मोह , प्रतीक्षा में बदल जाता है। फिर यही प्रतीक्षा गहरी निराशा में।।