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विदिशा शहर में स्थित विजय मंदिर का निर्माण काल संभवतः 9वीं या 10वीं सदी में हुआ, जानकारी अनुसार इसका निर्माण चलुक्यवंशी राजा कृष्णदेव के प्रधानमंत्री वाचस्पति ने विदिशा विजय के उपलक्ष्य में कराया।
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उस काल मे विदिशा भारत के प्रमुख नगरों में माना जाता था...मध्यभारत में महिष्मति अर्थात महेश्वर के बाद विदिशा दूसरा प्रमुख नगर होता था।
धन संपदा और अपने वैभव ऐश्वर्य के कारण यह मुस्लिम आक्रांताओं के आकर्षण का केंद्र भी था वहीं आंखों में कांटे की तरह खटकता भी था।
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यह मंदिर तत्कालीन समय मे विश्व के सबसे विशाल और विराट मंदिरों में शामिल था....यह लगभग आधा मील लम्बा-चौड़ा था। आज भी इसकी जो नींव शेष बची है वह भी लगभग 2/3 मंजिला ऊंचाई की है। इसकी ऊंचाई लगभग 105 मीटर थी....जो कि भारतीय निर्माण कला की उत्कृष्ठ उदाहरण थी इसकी तुलना कोणार्क स्थित सूर्य मंदिर से की जाती है।
..........................................लेकिन यह मंदिर ज्यादा समय तक सुरक्षित नहीं रह सका।
निर्माण की 2 सदी बाद ही एक मुस्लिम हमलावर इल्तुतमिश ने 1233-34 में इस पर हमला कर दिया.....मंदिर के साथ साथ ही विदिशा नगर को भी लूटा गया।
लेकिन संघर्षशील तत्कालीन समाज और राजा ने 1250 में इसका पुनरोद्धार कराया.................लेकिन मुस्लिम हमलावर सिर्फ एक बार से शांत नहीं होने वाले थे......उनके मुंह खून लग चुका था, आंखों में विदिशा का वैभव घर कर चुका था।
इसी प्रकार सन 1290 में अलाउद्दीन खिलजी के मंत्री मलिक कपूर ने इस मंदिर और विदिशा नगर पर आक्रमण कर दिया।
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यहां में इकबाल की 2 पंक्तियों का जिक्र करना चाहूंगा......जब वो लिखते हैं " मजहब नहीं सिखाता - आपस में बैर रखना"।।
तो मैं आपको बता दूं.......यह मलिक कपूर एक किन्नर था....जिसे की अन्य मुस्लिम हमलावरों से अलाउद्दीन ने 1000 दीनार में खरीदा था.....एक गुलाम के तौर पर......लेकिन उसकी शिक्षा -दीक्षा ने उसे एक आतातायी बना दिया.....
उसने विजय मंदिर को पुनः
ध्वस्त कर दिया......उसकी कई सुंदर मूर्तियों को नष्ट कर दिया।
वह यहां से एक 8 फ़ीट की अष्टधातु की प्रतिमा लूटकर दिल्ली ले गया जहां उस प्रतिमा को हुमांयू दरवाजे की मस्जिद की सीढ़ियों में लगवा दिया....ताकि वह सनातन समाज का अपमान देख सके।।
............विजय मंदिर पर हमलों का सिलसिला यहीं नहीं रुका..... वह लगातार हमले झेलता रहा....1459-60 में मांडू के शासक महमूद खिलजी ने इस पर हमला किया......और मंदिर के साथ साथ विदिशा शहर को भी लूटा।।
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लेकिन इन हमलावरों की भूख तब भी शांत न हुई.......इसके बाद 1532 में गुजरात के शासक बहाद्दुर शाह ने इस मंदिर और शहर पर हमला करके इसे लूटा........ लगभग 700 सालों तक विदिशा नगर और विजयमन्दिर मुस्लिम लुटेरों और अत्याचारियों के अत्याचार झेलते रहे..........लेकिन हर बार अपने संघर्ष के बल पर खड़े हो जाते।
...........शायद इन्ही स्थितियों के मद्देनजर अल्लामा इकबाल ने लिखा होगा....
" यूनान ओ रोमा ओ मिश्र - सब मिट गए जहां से।
अब तक मगर हैं बाकी - नामों निशां हमारा।।
कुछ बात है कि हस्ती - मिटती नहीं हमारी।
सदियों तलक रहा दुश्मन - दौरे जहाँ हमारा।।"
..............हमारा शहर और विजय मंदिर 700 वर्ष तक मुस्लिम आततायियों से लड़ता रहा जूझता रहा........लेकिन कभी हार नहीं माना।।
यह मुगल शासकों के हृदय में शूल बनकर हमेशा चुभता रहा.....और इसी की परिणति हुई कि 1682 में थक हार कर ओरेंगजेब ने इसे तोपों से उड़वा दिया........उसके बाद यह विजयमन्दिर कभी दोबारा खड़ा नहीं हो सका। इसके सभी भागों को खंडित विखण्डित करके औरंगजेब ने इसको मस्जिद का स्वरूप दे दिया।।
हालांकि 1760 में विदिशा के पेशवा मराठा शासकों ने इसे पुनः मंदिर का स्वरूप दिया लेकिन वह दोबारा विजयमन्दिर को वैसा खड़ा नहीं कर पाए।।
इसमें स्थित बाबड़ी आज भी रहस्यमय ही हैं......पिछले 1000 वर्षों में यह कभी किसी ने सुखी हुई नहीं देखीं।
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हमारे समाज का संघर्ष कभी भी इस मंदिर के लिए नहीं रुका..... भारत के स्वाधीन होते ही....1947 में हिन्दू महासभा ने इसकी पुनः प्राप्ति के लिए सत्याग्रह छेड़ दिया....आजाद भारत मे यह सबसे लंबे समय तक चला आंदोलन था....यह 1964 तक चलता रहा।
1965 तक यहां ईद की नमाज अदा की जाती रही लेकिन आंदोलन स्वरूप 1965 में तत्कालीन डॉ द्वारका प्रसाद मिश्र सरकार ने इसमे नमाज प्रतिबंधित करके इसे संरक्षित स्मारक घोषित कर दिया।
आंदोलन का पहला पड़ाव यहां समाप्त हुआ ......उसके बाद हिन्दू महासभा ने कूटनीतिक प्रयास लगातार किए.....पूर्व सांसद निरंजन वर्मा ने आज से लगभग 20 वर्ष पूर्व एक पत्रिका को दिए साक्षात्कार में बताया.....की उन्होने सभी प्रयास किए.....सरकारें बदलती रहीं.....आंदोलन की गति और कार्यशैली भी बदलती रही.....पंडित नेहरू हमेशा इस विषय में बात करने से बचते रहे....और यह कार्य डॉ मौलाना अबुल कलाम आजाद के लिए दे दिया गया....
डॉ अबुल कलाम भी अपनी व्यस्तताओं के कारण यहाँ नहीं आ सके.....और उन्होंने तत्कालीन शिक्षा सचिव हुमायूं कबीर को यह मामला देखने और जांच करने को कहा.......चूंकि हुमायूं एक निष्पक्ष छवि के व्यक्ति थे.....और उन्होंने जांच करने के पश्चात बीजामण्डल मस्जिद को एक मंदिर पाया......
लेकिन वह अपनी रिपोर्ट देने से ज्यादा कुछ कर पाने में सक्षम नहीं थे।।

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