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स्त्री कि पुरुष पर निर्भरता, स्त्री से अधिक पुरुष के लिये अच्छा नहीं है।
लेकिन आज का पुरूष तो और भी अबला है। वह बड़ी चालाकी से एक सभ्य समाज के निर्माण का तर्क देककर उसे बांधता है।
स्त्री हर दुख सहकर यह स्वीकार कर लेती है कि हर तरह से समझौता उसे करना है। लेकिन वह पुरुष का सम्मान नहीं करती है।
प्राचीन काल आज तक पुरूष ने ऐसे समाज और व्यवस्था को नहीं बनाया जँहा स्त्री सुरक्षित रह सके।
स्त्री के अस्तित्व के लिये पुरुष का होना आवश्यक है। यह स्थापित नियम बन चुका है।
धर्मवीर भारती के उपन्यास गुनाहों का देवता में वह लिखते है।
'स्त्री को किसी ने शाप दे दिया है कि पुरुष के बिना नहीं रह सकती है।'
लेकिन स्त्री का प्रमुख कर्म सृजन है। वह तो कही भी रहकर कर सकती है।
किसी को बांधना, स्वयं बंधना भी है। जिसे स्वंत्रत होना चाहिये था, उसने अपनी दुर्बलता के कारण बंधन बना लिया।
वह पुरूष है, जो उसी जाल में फँस गया जो स्त्री के लिये बनाया था।
बहुतायत ने इसे ही जीवन मानकर स्वीकार कर लिया। लेकिन जिनकी चेतना जागृत हुई
उनकी आत्मा, स्वंतत्रता के तड़फती है। वह धर्म , दर्शन , साहित्य में खोजते है। वह पूर्ति हो नहीं सकती है।
बिना स्वंत्रत हुये न कोई बुद्ध बन सकता है, न कोई भगीरथ कि तरह समाज के लिये तपस्या कर सकता है, न कोई सिकंदर की तरह विजय यात्रा पर जा सकता है।
अब स्त्री पुरुष के सामने खड़ी है।
तुम स्वंत्रत नहीं हो! तुम तो देवता हो। देवताओं का प्रथम कर्त्तव्य है कि वह उस परंपरा का पालन करें, जो स्वयं बनाये है।
यह स्त्री बिल्कुल ही दोषी नहीं है। वह वही कर रही है, जो उसे दिया गया है।
पुरुष का स्वाभाविक गुण स्वंतत्रता है। यदि उसे यह स्वंतत्रता चाहिये ! वह पहले स्त्री को मुक्त करे।।

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