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भारत का वह समय जब वह संघर्ष, युद्ध में व्यापक रूप से सलग्न था। वह तुर्क, मुगल, अफगान का आक्रमण हो या जब उनकी दिल्ली में सत्ता स्थापित हो गई तब भी।
भारत की अर्थव्यवस्था हिंदुओं के हाथ में थी।
विदेशी आक्रमण का प्रभाव पश्चिमी, उत्तर भारत में अधिक था। पूर्व और दक्षिण पर इसका प्रभाव उतना नहीं था।
जिस काल में लोगों का तर्क था कि हम पराजित ही हो गये। 12वीं से 18वीं शताब्दी तक, उसी काल में भारत के विभिन्न क्षेत्रों में ऐतिहासिक निर्माण, कला, संस्कृति का विकास हो रहा था।
चोल, विजयनगर, खुजराहो, बुंदेलखंड, मराठवाड़ा आदि क्षेत्रों में मंदिरों, गुरुकुलों, सांसकृतिक केंद्रों का विकास हो रहे थे।
एस जयशंकर येल यूनिवर्सिटी में या शशि थरूर हार्वर्ड में तथ्यों के साथ प्रस्तुत करते हैं कि 18वीं शताब्दी तक विश्व अर्थव्यवस्था में भारत का योगदान 26% था।
यही नहीं भारत विभाजन के समय पश्चिमी सीमांत आज का पाकिस्तान, पूरी अर्थव्यवस्था लाहौर, पेशावर के हिंदुओं के हाथ में थी।
वह लोग जो बर्बर, असभ्य, लुटरे थे। उनके हजारों आक्रमणों और शासन के बाद भी भारतीय अर्थव्यवस्था हिंदुओं के हाथ में कैसे थी ?
इसकी विवेचना यदि आप करें तो स्प्ष्ट दिखता है।
स्तरों में विभाजित भारतीय समाज के लिये यह व्यवस्था बहुत उपयोगी साबित हुई थी।
किसी भी आक्रमणकारी के लिये प्रथम रक्षात्मक पंक्ति को तोड़ना आसान नहीं था। इस defence line को बिना तोड़े समाज में घुसना संभव नहीं था।
यह समाज भी आश्चयर्जनक, विचित्र था। उसका विश्वास! उसकी शक्ति और दुर्बलता दोनों थी। समाज निश्चिंत होकर अपने उत्पादन, विकास, प्रगति में व्यस्त था। उसका यह विश्वास हजारों साल के अनुभव पर आधारित था कि प्रथम रक्षा पंक्ति इतनी मजबूत है कि उसको तोड़ना किसी के लिये आसान नहीं है।
उनका विश्वास गलत भी नहीं था। 745 में प्रथम इस्लामिक आक्रमण के बाद 500 वर्षों तक मध्य एशिया के लुटरे, भारतीय परिक्षेत्र में घुस नहीं सके थे।
बार बार के आक्रमणों के बाद भी यह पंक्ति कमजोर हुई, बिखरी लेकिन फिर खड़ी हो जाती थी। दिल्ली में शासन करने वाले तुर्कों, मुगलों के प्रत्येक शासक को अपने जीवनकाल में छोटे बड़े हजारों युद्ध करने पड़े।
सबसे मजबूत शासक औरंगजेब को अपने शासनकाल में उत्तर, दक्षिण में विद्रोह को दबाने के लिये 250 से अधिक युद्ध लड़ने पड़े। उसकी मृत्यु भी दक्षिण के अभियान में हुई थी।
क्षत्रियों के नेतृत्व में जिसमें, मराठा, जाट , भील, गुर्जर आदि लड़ाकू जातियां भी थीं ने बहुत बहादुरी से समाज की रक्षा किया। इनके ऊपर मात्र राज्य की रक्षा का भार नहीं था। धर्म और उसके पूजास्थलों की रक्षा का भार भी था।
उन्होंने आमने सामने युद्ध किया, परिस्थितियों के साथ अपनी रणनीति भी बदली। औरंगजेब के साथ जुड़कर कैसे राजा भरत सिंह और जय सिंह ने दक्षिण, पुरी के मंदिरों को बचाये इसकी चर्चा हम अगले अंक में करेंगे।
अपने अनवरत संघर्ष से प्रथम रक्षाप्रणाली ने भारतीय समाज और उसके आर्थिक तंत्र को सुरक्षित रखा। यदि हम उस समय आर्थिक रूप से दरिद्र भी हो गये होते तो सम्पूर्ण भारत को एक इस्लामिक मुल्क बनने से कोई रोक नहीं सकता था।
यह अब स्प्ष्ट हो चुका है। भारत का आर्थिक रूप से कमजोर अंग्रेजों ने किया। उन्होंने 47 ट्रिलियन अरब डॉलर भारत से लूटकर लेकर गये। इसके लिये कई शोधपत्र छप चुके हैं। जिन्हें पढ़ा जा सकता है। तब तक यह रक्षापंक्ति लगभग ध्वस्त हो चुकी थी। अंग्रेजों ने शासन व्यवस्था, उस रक्षापंक्ति से लिया भी नहीं था। उन्होंने युद्ध से अधिक, रणनीति से काम लिया।
हमें समीक्षा, आलोचना करनी चाहिये, लेकिन यह गर्व का विषय होना चाहिये कि 500 वर्षों से अधिक कैसे उस रक्षाप्रणाली ने संघर्ष किया।
भारतीय समाज यद्यपि अत्याचार से पीड़ित था। लेकिन गुलाम नहीं था। हम इस संघर्ष के पूर्वार्द्ध के अत्याचारी शासक औरंगजेब के समय की एक घटना से समझ सकते हैं।
शिवाजी महाराज जब औरंगजेब से मिलने आगरा आ रहे थे। यह यात्रा 15 दिन की थी। शिवाजी मार्च 1666 में निकले और मई 1666 में आगरा पहुँचे।
इतना समय क्यों लगा ?
हर गली, चौराहे पर उनके स्वागत के लिये तोरड़द्वार बने थे। उनके अभिनन्दन के लिये अपार जनसमूह उमड़ पड़ा था। सात हाथियों का दल कलस लेकर आगे चल रहा था। पीछे ब्राह्मणों का दल वैदिक मंत्रोच्चार कर रहा था। आगरा पहुँचने में उनको दो महीने लग गये। उनकी सफलता के लिये भारत के मंदिरों में विशेष पूजा का आयोजन किया गया था। यह किसी गुलाम समाज के लक्षण नहीं हैं।
अब्राहम लिंकन के वाक्य हैं-
जो संघर्ष करते रहते हैं,
उनको गुलाम नहीं कहा जा सकता है।

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