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शेख़ अहमद दीदात 1918 में सूरत गुजरात में पैदा हुए। उनके वालिद सिलाई का काम करते थे पर कमाई इतनी नहीं थी कि घर का ख़र्च सुचारू रूप से चल सके, उस समय पैसे कमाने के लिए गुजरात के लोग साऊथ अफ़्रीक़ा जाते थे। अहमद दीदात के वालिद भी साऊथ अफ़्रीक़ा चले गए वहां उन्होंने एक फ़ार्म हाउस में मज़दूरी की जब कुछ पैसे इकट्ठा हुए तो साऊथ अफ़्रीक़ा के शहर डरबन में टेलरिंग की एक छोटी दुकान खोल ली और अपनी फ़ैमिली को अपने पास साऊथ अफ़्रीक़ा बुला लिया।
इस तरह अहमद दीदात साहब 1927 में साऊथ अफ़्रीक़ा पहुंचे उस समय उनकी उम्र 9 वर्ष थी साउथ अफ़्रीक़ा पहुंचने के कुछ महीने बाद उनकी वालिदा का इंतक़ाल हो गया वालिद ने इनका एडमिशन एक स्कूल में करा दिया लेकिन घर की ख़राब आर्थिक स्थिति के कारण कक्षा 6 के बाद पढ़ाई छोड़ना पड़ा कुछ दिनों तक सिलाई के काम में वालिद का हाथ बंटाया ड्राइविंग सीखी और फ़र्नीचर बनाने वाले एक कारखाने में ड्राइवर की हैसियत से नौकरी करने लगे।
16 वर्ष का एक नौजवान जिस की शिक्षा सिर्फ़ क्लास सिक्स तक हुई हो ड्राइवर की हैसियत से नौकरी करता हो, कौन सोच सकता था कि यह नौजवान एक दिन अपने इल्म की बदौलत पूरी दुनिया में मशहूर होगा।
अहमद दीदात साहब जहां नौकरी करते थे वहां ईसाई मिशनरी वाले बहुत सरगर्म थे वह आते अहमद दीदात को ईसाइयत क़बूल करने की दावत देते थे। इस्लाम की बुराई बयान करते और रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की शान में बहुत बुरे कमेंट करते थे। जिससे अहमद दीदात साहब को ग़ुस्सा आता था पर इल्म उतनी नहीं थी कि उन्हें जवाब दे पाते।
इस चीज़ ने उन के अंदर सकारत्मक बदलाव किया और उन्होंने ठान लिया कि इतना पढ़ना है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की शान में ग़ुस्ताख़ी करने वालों को भरपूर जवाब दे सकें।
एक दिन वह कारखाने का बेसमेंट साफ कर रहे थे वहां उन्हें एक किताब मिली जो मशहूर आलिम मौलाना रहमतुल्लाह कैरानवी की किताब इज़्हारुल हक़ का इंग्लिश तर्जुमा थी किताब धूल मिट्टी में लत पत थी अहमद दीदात साहब किताब उठा लाए साफ़ करके पढ़ना शुरू किया पढ़ कर बहुत खुश हुए इस किताब में हर वह चीज थी जिस की उन्हें तलाश थी।
फिर उन्होंने बाइबिल ख़रीद ली और इतनी मेहनत की कि सन 1942 में इन्होंने एक लेक्चर दिया जिस का शीर्षक था मोहम्मद अमन के पयाबंर।
अहमद दीदात साहब की शादी हो चुकी थी दो बच्चे भी पैदा हो चुके थे कमाई कम थी और पढ़ाई का शौक भी था इस लिए 1949 में पाकिस्तान के कराची शहर आ गए और कपड़े की एक फैक्ट्री में मैनेजर की नौकरी कर ली लेकिन तीन साल बाद 1952 में कानूनी मजबूरियों के कारण साउथ अफ्रीका वापस जाना पड़ा।
इस बार हालात मुख्तलिफ थे लोग उन के लेखों और भाषणों के कारण उन्हें जानने लगे थे लोग उन के साथ जुटते गएं और 1957 में इन्होंने IPCI के नाम से एक संस्था क़ायम की और दो साल बाद सलाम ऐजुकेशन इंस्टीट्यूट खोला।
शेख अहमद दीदात साहब ने इस्लाम और ईसाई धर्म पर बहुत सी किताबें लिखीं जिस से प्रभावित होकर काफी लोग मुसलमान हुए इन्हें अमरीका यूरोप और आस्ट्रेलिया बुलाया जाने लगा।
इन की शोहरत सुन कर पाकिस्तानी राष्ट्रपति जनरल जिया उल हक़ ने पाकिस्तान बुलाया , मालदीव सरकार ने इन्हें मामून अब्दुल कय्यूम अवार्ड और सऊदी सरकार 1986 ने शाह फैसल अवार्ड से सम्मानित किया।
1996 में इन पर फालिज का हमला हुआ इलाज की जिम्मेदारी सऊदी अरब सरकार ने उठाई लेकिन वह शिफा न पा सके बिस्तर से लग गएं और 2005 में उनका डरबन दक्षिण अफ्रीका में इंतकाल हो गया।
उनकी किताबों का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद किया गया उर्दू में उन की किताबें रेख़्ता पर पढी जा सकती हैं।
मोहब्बत में सकारात्मक सोच और सही क़दम ने एक आम से इंसान को अहमद दीदात बना दिया।

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