दिलों की लाइब्रेरी।
एक जज़माना था जब इस्लामी देशों में बेहतरीन लाइब्रेरियां हुआ करती थीं। बग़दाद, गरनाता, असकंदरीया, रे ( आज का तेहरान ) नीशापुर, समरकंद, दमिश्क, कूफ़ा, बसरा बुखारा, मराकिश, ग़ज़नी, लाहौर और काश्ग़र आदि शहरों में बड़े बड़े कुतुबखाने मौजूद थे रिसर्च सेन्टर्स थे जहां रिसर्च का काम होता था अच्छी किताबों के लिखने पर पुरूस्कार मिलते थे।
उस जमाने में बड़े बड़े आलिम , वैज्ञानिक , फलसफी , इतिहास कार , अदीब व शायर हुए जिन्होंने बहुत कुछ लिखा और दुनिया को दिया , कुछ ने दस बीस किताबें लिखी किसी ने चालीस पचास।
फिर ज़माना पलटा , मंगोल व ततार आधी की तरह आए बादलों की तरह छा गए लाखों लोगों को कत्ल कर दिया शहर के शहर वीरान कर दिए गए लाइब्रेरियों को जला दिया गया मदरसों को बर्बाद कर दिया गया।
बहुत बुरा ज़माना था मुसीबतों के पहाड़ तोड़े गए थे लेकिन मुसलमान एक जिंदा कौम है वह हालात से घबराने वाले नहीं हैं मुसलमानों ने इसे एक चैलेंज के रूप में लिया , और जुट गए इस नुकसान की भरपाई के लिए।
पहले एक लेखक बीस किताबें लिखता था अब के लेखक दो सौ लिखने लगे पहले तीस किताबों का तर्जुमा करता था अब तीन सौ किताबों का तर्जुमा करने लगे इस दौर में ऐसे विद्वान भी हुए जिन्होंने पांच सौ किताबें तक लिखीं , ऐसे लोग भी थे कि जब उनकी उम्र और उनके द्वारा लिखी गई किताबों के पेजों का हिसाब लगाया गया तो एक दिन में दस पेज लिखने का औसत निकला।
अल्लामा इबनुल जोज़ी , इमाम इब्ने तैमिया , इब्ने कय्यिम , इब्ने कसीर , इब्ने असीर , सुयोती , इब्ने खलदून , ज़हबी , सुबकी , इब्ने हज्र असकलानी , अलऐनी , अबुल इज़्ज अब्दुस्सलाम , तकीद्दीन शामी , नसीरुद्दीन तूसी जैसे कितने नाम हैं जो चंगेज खान व हलाकू के जमाने में या उसके तुरंत बाद पैदा हुए और अपने इल्म से हर नुकसान की तलाफी कर दी मकानों से कुतुबखाने मिटा दिए गए तो दिलों में कुतुबखाने बना लिए।
मुसलमान हारने वाली कौम नहीं है इतिहास गवाह है मुसलमान की डिक्शनरी में मायूसी शब्द नहीं है जिन परिस्थितियों में दूसरे लोग टूट कर बिखर जाते हैं उन्हीं परिस्थितियों में मुस्लमान पहले से ज्यादा ताकत से उठ खड़े होते हैं ऐसा एक बार नहीं बार-बार हुआ है हम ने खुद को साबित किया है।
