बाबा अपनी रचना के जरिए समाज को जिस भाव से चित्रित किए हैं वो अलौकिक है....
खलन्ह हृदयँ अति ताप बिसेषी।
जरहिं सदा पर संपति देखी॥
जहँ कहुँ निंदा सुनहिं पराई।
हरषहिं मनहुँ परी निधि पाई॥
भावार्थ यह है कि.....
दुष्टों के हृदय में बहुत अधिक संताप रहता है। वे दूसरों की संपत्ति (सुख) देखकर सदा जलते रहते हैं। वे जहाँ कहीं दूसरे की निंदा सुनते हैं, वहाँ ऐसे प्रसन्न होते हैं जैसे कोई रास्ते में पड़े खजाने को पाकर खुश होता है।
