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बनारस सिर्फ़ एक शहर नहीं है,ये एक भाव है जो हर दिल में बसता है। यहाँ अगर गंगा की लहरें जीवन को गतिमान करती हैं, तो शंकर के दर्शन से जीवन जीवंत रहने की प्रतिज्ञा कर लेता है।

इस शहर की गलियाँ अगर जीवन में मोह देती हैं तो यहाँ के घाट जीवन को मोह से मोक्ष की तरफ़ ले जातें हैं।

ये काशी के जो पवित्र घाट हैं न यहां पर टूटे हुए दिलों की मरम्मत भी होती है और इन्ही घाटों की सीढ़ियों के किसी कोने में बैठ कर एक नये इश्क़ की कहानी भी लिखी जाती है।

ये वही घाट है जहां कुछ दोस्त मिलकर एक आशिक़ की आशिक़ी का भूत उतारते हैं तो किसी दूसरे कोने में वैसे ही कुछ दिलजले दोस्त यार किसी दोस्त पर आशिक़ी का खुमार भी चढ़ा देते हैं।

वैसे ये बनारस के वही घाट है जहाँ बाबा तुलसी ने अद्भुत अतुलनीय ग्रंथ रामचरितमानस रच डाला जो आज हर हिंदू की आत्मा है। महाकवि जयशंकर प्रसाद ने इन्ही घाटों पर बैठ आंसू रचा जिसने व्यथित हृदयों की पीड़ा को आवाज दिया। किसी घाट किनारे ही काशीनाथ ने पूरे अस्सी मोहल्ले की ऐसी चर्चा लिखी की दुनिया को एक बार फिर से बनारसी लंठई, अक्खड़पन और गलियों द्वारा सहज संवाद का अप्रतिम अहसास हुआ।

अस्सी घाट की इन्ही सीढ़ियों पर बैठ कर एक युवा आने वाली जिंदगी को बेहतर बनाने की सोचता है, फिर जब वो यहाँ से उठकर दशाश्वमेध होते हुए मणिकर्णिका घाट तक पहुँचता है तो जलती हुई चिता को देखक उसके मन की सारी कल्पनाएं स्थिर हो जाती हैं तब उसे पता चलता जो जिंदगी वो जी रहा है सब मोह माया है।

मणिकर्णिका घाट के शमशान के केवल दर्शन मात्र से समस्त अहंकार समाप्त हो जाते हैं। क्यों की वहां पहुंचते ही फिजाओं से आवाज आती है की सब जन्म मुझी से पाते हैं, फिर लौट मुझी में आते हैं। ऐसा घाट, जहाँ मृत्यु भी उत्सव है।

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