गाँव की सुबह
ये जमाना भी बित जायेगा जल्द ही गाँव भी जब शहर बन जायेगा।
पुराणा जमाना में उन्हील्ले मे गाँव में बिच्छू घणा होवता अर लाईट ही कोनी।आंगणे मे चिमनी रो चानणो होवतो हो।म्हारे खुद रे २००९ मे लाईट आयी ही।जणा घर आला टाबरों ने दिन थका ही ब्यालू करा ने मासे चाढ देता।अर पासा सुबह दिन उगे ही नीचा उतरता।रात रा डरता कई टाबर तो मूती भी मासे मे ही करता जद दादी नी जागती हाका करणे पर भी।मां ए मां मनै मूती आवे पण मां जागती कोनी अर टाबरिया में ही धरा देता।पसे बड़ियो रे मासे रे एक कालो घेरो मंड जातो।हालाँकि टाबरों हारू नेनी नेनी मसलिया होवती ही।
जीवन तब पर्यावरण अनुकूल था शाम को वेगा सो जाता अर मासो ख़राब होवतो तो भी खींप री बड़ी सू दूजो बण लेता। हमे तो पलंग माते हूले गिगला जणा गिगलो री मां एक जटके मे ही जाग जावे कठे ही बीस हज़ार रो गद्दो खराब नी कर दे।
अब बिच्छू ने हमारे घरो को छोड़ दिया।ओर टाबरों को नींद नहीं आती १२ बजे तक।खैर जमानो जातो रियो भायां।
इण तस्वीर में थे गाँव री सुबह री दिनचर्या ने देख सको एक संयुक्त परिवार मे बिनणिया कैसे अपना अपना काम करती थी ।
