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नायक से बड़ा खलनायक?
सच बताऊं तो #आदिपुरुष देखने के बाद कुछ कहते नहीं बन रहा। लेकिन एक बात दावे के साथ कह सकता हूं कि फ़िल्म प्रोडक्शन से जुड़े प्रमुख लोग अंतर्मन से रावण प्रेमी हैं। आप फ़िल्म देखेंगे तो कई बार लगेगा, जैसे मुख्य किरदार में रावण ही है।
रामायण के नायकों का इतना कमजोर चित्रण आपने कभी देखा तो क्या, सोचा तक न होगा। पूरी फिल्म में प्रभास की बॉडी लैंग्वेज और चेहरे के हावभाव, आत्मविश्वास खोए हुए एक हताश, निराश व्यक्ति जैसे लगते हैं। लंका में वे किसी पस्त व्यक्ति की तरह रावण से लड़ते हैं। इस दौरान रावण उन्हें कई बार सहज ही उठाकर दूर फेंक देता है। लगता है, कि यदि ओम राउत, मनोज मुंतसिर और उनके अन्य साथी यदि किसी और देश में पैदा हुए होते तो शायद रावण के हाथों राघव को मरवा डालते। अतुलित बलशाली कहे जाने वाले हनुमानजी को भी कुंभकर्ण से पिटता देखना, नागवार गुजरता है।
हनुमान मिलते हैं तो लक्ष्मण के साथ उनकी सस्ती चुटकुलेबाजी करते हैं। सबरी खुद राम से मिलने आती है और जब हनुमान पहली बार समुद्र लांघकर लंका जाते हैं तो रास्ते में उन्हें सुरसा मिलती है न लंकिनी। बाकी लंकादहन से पूर्व हनुमानजी और मेघनाथ के बीच टपोरी किस्म के डायलॉग्स तो सुर्खियों में हैं ही। मेघनाथ जब चुटकी बजाते हुए राम से कहता है कि 'अपना तमाशा समेटो और सुबह होने से पहले निकल लो' तो लगता है जैसे लेखक जानबूझकर हमारे आराध्य को कमतर दिखाना चाहता है। आदिपुरुष में लोगों ने पहली बार विभीषण की पत्नी को देखा। यही नहीं, शक्ति लगने के बाद वैद्य सुषेन का रोल भी उसी ने निभाया।
हमेशा सुना है कि लंका सोने की थी, लेकिन आदिपुरुष में यह काले पत्थरों से निर्मित है। लंका में पूरा युद्ध रात के वक्त लड़ा जाता है, जबकि सब जानते हैं, कि प्राचीनकाल में सूर्यास्त होते ही युद्ध थम जाता था...।
चरित्रों के स्वरूप की तो मैं बात ही नहीं कर रहा, लेकिन रामायण के मूल कथानक के साथ खिलवाड़ करना सुनियोजित ढंग से एक एजेंडा फिक्स करने जैसा लगता है। एजेंडा जिनके फेवर में है, उन्होंने इसे पकड़ भी लिया है। यही वजह है कि वे सब कुछ देखने, समझने के बावजूद न सिर्फ खामोश हैं, बल्कि खुद को पर्दे के पीछे रखते हुए इस सनातन विरोधी फ़िल्म को प्रमोट भी कर रहे हैं।
बाकी सब कुशल, मंगल है।

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