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हस्तिनापुर में राजनीतिक संकट पैदा हो गया। तो भीष्म वेदव्यास को लेने के लिये उनके आश्रम गये।
भगवान वेदव्यास ने कहा आपके रथ पर चलना उचित नहीं है। आप चले हम आ रहे है।
विश्वामित्र, वशिष्ठ जैसे ऋषि जिनका रघुवंशियों में इतना आदर था। अपनी कुटिया में रहते थे।
चाणक्य, विदुर जैसे प्रभावशाली , विद्वान मंत्री अपने आश्रमो में रहते थे।
हमारे गोस्वामी जी, अकबर के प्रस्ताव को ठुकरा दिये कि हमारे राजा तो राम है।
द्रोपदी विदुषी नारी, हस्तिनापुर कि सभा मे धृतराष्ट्र से कहती है।
लोभ और धर्म का बैर है राजन।
धर्म राजप्रसादों, धन, वैभव से सैदव दूर रहा है। राजकुमारों को भी धर्मज्ञ बनने के लिये राजप्रसादों को त्यागना पड़ा।
सनातन धर्म, इब्राहिमिक मजहब नहीं है। जंहा पोप, खलीफा, पादरी जैसे लोग सत्ता प्राप्ति के संघर्ष में सम्मिलित होते है।
आश्रम, गुरुकुल से निकले प्रभावशाली व्यक्तित्व सत्ता संभालते है। धर्म कि शिक्षाएं उन्हें अनुशासित रखती है। उनके कर्तव्यों के प्रति दृढ़ बनाती है।
इसलिये ऐसे उद्धरण देकर अपने धर्म कि महिमा कम नहीं करनी चाहिये।
हम अलग है! न ही श्रेष्ठ है न ही कमतर है। इसका महत्व है।
अलग होने में आकर्षण है। यही अस्तित्व बनाये रखता है।