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दूर.. क्षितिज के पार..
नहीं हो जहां अन्य किसी का अस्तित्व.
बस तुम हो, मैं हूँ..
कुछ तुम्हारी कुछ मेरी व्यथाएं हों.
दोनों की अव्यक्त, अपूर्ण, स्वप्निल कथाएं हों.

श्यामल घटाओं के पीछे अलसाई,
धूप ज़रा हो मद्धम सी.
मेरी ज़ुल्फ़ों से अठखेलियां करती,
बारिश से पहले वाली रूमानी हवाएं हों..

तुमसे कहती रहूं मैं तुमसे कहने के लिए
मेरी बातें सागर भर, और तुम्हें
जो कहना था सब आ ठिठके तुम्हारे होठों पर..
तुम्हारी सुरमई पलकें और शर्मीली अदाएं हों..

कुछ पल के फासले कई घंटों में तय करें..
कुछ कदम ही सही, चलो हम साथ चलें..
घाव तुम्हारे दिल के, ज़ख्म मेरे भी सब,
भर दे जो पूरे,
एक दूसरे के लिए वो दवाएं हों..

और साथ में बेहिसाब प्यार डाल के
मेरी बनाई, तुम्हारी पसंद की वही चाय हो..

बस...
मिल जाए वही साथ वही एक चाय..
और वक़्त उसी लम्हें में थम जाए..
इसी एक पल में चलो कई ज़िंदगियाँ
जी लिया जाए..

फिर वक़्त बेवफा गुज़रे, न माने अगर,
तो ज़िन्दगी उस लम्हें में फिर थम ही जाए..
तुमको जी लिया एक पल भी, तो जाने का
अफ़सोस क्यों? जीवन रहे या जाए..
अगर स्वप्न है ये तो उम्र इसी नींद के
पहलू में कट जाए.
दे सकते हो क्या.. फिर ऐसी एक शाम..
एक ऐसी चाय...

✒️दिव्या मिश्रा राय

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