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इस संस्कृति ने कभी अपने जीवन मूल्य के सिद्धांत में
' अर्थ ' को स्थान दिया था।
प्राचीन भारतीय संस्कृति अपने इन्हीं चार पुरूषार्थ के केंद्र कि परिधि पर घूमती है।
जितने भी रचनाकार हुये। उन्होंने इसमें से किसी एक को चुना या अन्य के साथ रचना किया। कभी किसी ने एक दूसरे कि निंदा नही किया।
रामायण, महाभारत धर्म कि व्याख्या करते है।
उपनिषद, गीता मोक्ष कि जोर करते है।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र, अर्थ के महत्व को बताता है तो वात्सायन का कामसूत्र काम के महत्व को बता रहा है।
कालिदास धर्म, अर्थ के साथ, काम के सौंदर्य को चुनते है।
गोस्वामीजी धर्म और सौंदर्य के भाव को पकड़ते है।
कबीर धर्म और मोक्ष पर जोर देते है।
यह हमारी साहित्यिक यात्रा है। यदि बहुत सूक्ष्मता अध्ययन करें तो सम्पूर्ण साहित्य के केंद्र में यही चार पुरूषार्थ है। जो एक दूसरे के महत्व और सहअस्तित्व को बताते है।
फिर एक समय आया जब दरिद्रता का महिमामंडन किया गया। अर्थ को सभी मानवीय दुर्गुणों का कारण बनाया गया। दरिद्र होना जैसे सभी सद्गुणों का प्रमाण है। वैभवशाली होना सभी दुर्गुणों का कारण बन गया।
प्रेमचंद कि रचनाओं में बनिया, रायसाहब, व्यापारी सभी कुटिल, चोर, अय्याश है। सभी दरिद्र संत, महात्मा है।
प्राचीन भारत के शास्त्र कहते है। मनुष्य बिना सद्गुणों के साथ कर्मशील हुये, अर्थ अर्जित नही कर सकता है।
एक वैभवशाली व्यक्ति अवश्य जीवन कि चुनौतियों को स्वीकार करके कर्मशील रहा होगा।
लेकिन प्रगतिशीलता का मानक यह है कि मनुष्य का अपना चरित्र महत्व नही रखता, व्यवस्था के दोष गौड़ है। अर्थ ही अपराध है।
आप धनी है तो अवश्य ही अपराधी, चोर, भ्र्ष्ट , अत्याचारी होंगें। इसका कारण मनुष्य नही है, धन है।

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