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योग, नाद योग, दीक्षा, ब्राह्मचार्य, स्वर विज्ञान, ध्यान के बारे में हम सबने थोड़ा तो पढ़ा ही है किन्तु कभी अपने ग्रंथि भेद के बारे में सूक्ष्मता से पढ़ा है.....?
𝗶𝗳 𝘆𝗼𝘂 𝗻𝗼𝘁 𝗵𝗲𝗮𝗿𝗱 𝗮𝗯𝗼𝘂𝘁 𝘁𝗵𝗮𝘁 𝗴𝗶𝘃𝗲 𝗮 𝗼𝗻𝗲 𝗿𝗲𝗮𝗱 𝘁𝗼 𝘁𝗵𝗶𝘀 #thread

ये एक अलौकिक कालजयी विद्या है

विज्ञानमय कोश की चतुर्थ भूमिका में पहुँचने पर जीव को प्रतीत होता है कि तीन सूक्ष्म बन्धन ही मुझे बाँधे हुए हैं। पंच- तत्त्वों से शरीर बना है, उस शरीर में पाँच कोश हैं। गायत्री के यह पाँच कोश ही पाँच मुख हैं, इन पाँच बन्धनों को खोलने के लिए कोशों की अलग-अलग साधनायें बताई गई हैं, विज्ञानमय कोश के
अन्तर्गत तीन बन्धन हैं, जो पञ्च भौतिक शरीर न रहने पर भी देव, गन्धर्व, यक्ष, भूत, पिशाच आदि योनियों में भी वैसे ही बन्धन बाँधे रहते हैं जैसा कि शरीरधारी का होता है यह तीन बन्धन-ग्रन्थियाँ, रुद्र ग्रन्थि, विष्णु-ग्रन्थि, ब्रह्म-ग्रन्थि के नाम से प्रसिद्ध हैं। इन के ऊँचा उठ जाने पर ही आत्मा शान्ति और आनन्द का अधिकारी होता है। इन तीन ग्रन्थियों को खोलने के महत्त्वपूर्ण कार्य को ध्यान में रखने के लिए कन्धे पर तीन तार का यज्ञोपवीत धारण किया जाता है, इसका तात्पर्य यह है कि तम, रज, सत् के तीन गुणों द्वारा स्थूल, सूक्ष्म, कारण शरीर बने हुए हैं। यज्ञोपवीत के अन्तिम भाग में तीन ग्रन्थियाँ लगाई जाती हैं इसका तात्पर्य यह है कि रुद्र ग्रन्थि, विष्णु ग्रन्थि तथा ब्रह्म ग्रन्थि से जीव बँधा पड़ा है। इन तीनों को खोलने की जिम्मेदारी का नाम ही पितृ ऋण, ऋषि ऋण, देव- ऋण है । तम को प्रकृति, रज को जीव, सत् को आत्मा कहते हैं।

व्यावहारिक जगत् में तम को सांसारिक जीवन, रज को व्यक्तिगत जीवन, सत् को आध्यात्मिक जीवन कह सकते हैं।

सामाजिक जीवन को मधुर बनाएँ। देश, जाति और समाज के प्रति अपने कर्तव्य का पालन करें, यही पितृ ऋण से, पूर्ववर्ती लोगों के उपकारों से उऋण होने का मार्ग है। व्यक्तिगत जीवन को शारीरिक, बौद्धिक और आर्थिक शक्तियों से सुसम्पन्न बनाना अपने को मनुष्य जाति का सदस्य बनाना ऋषि ऋण से छूटना है। स्वाध्याय, सत्संग, मनन, चिन्तन, निदिध्यासन आदि आध्यात्मिक साधनाओं द्वारा काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि अपवित्रताओं को हटाकर आत्मा को परम निर्मल- देवतुल्य बनाना, यह देव ऋण से उऋण होना है।

दार्शनिक दृष्टि से विचार करने पर तम का अर्थ होता है- शक्ति, रज का अर्थ होता है साधन, सत् का अर्थ - होता है- ज्ञान। इन तीनों की न्यूनता एवं विकृत अवस्था बन्धन कारक, अनेक उलझनों, कठिनाइयों और बुराइयों को उत्पन्न करने वाली होती है। इसलिए जब तीनों की स्थिति सन्तोषजनक होती है, तब त्रिगुणातीत अवस्था प्राप्त होती है।

आत्मिक क्षेत्र में सूक्ष्म अन्वेषण करने वाले ऋषियों ने यह पाया है कि तीन गुण, तीन शरीरों, तीन क्षेत्रों का व्यवस्थित या अव्यवस्थित होना अदृश्य केन्द्रों पर निर्भर रहता है, सभी दिशाओं को उत्तम बनाने से ये केन्द्र उन्नत अवस्था में पहुँच सकते हैं। दूसरा उपाय यह भी है कि अदृश्य केन्द्रों को आत्मिक साधना विधि से उन्नत अवस्था में ले जाएँ, तो स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण शरीर को ऐसी स्थिति पर पहुँचाया जा सकता है कि जहाँ उनके लिए कोई बन्धन या उलझन शेष न रहे।

साधक जब विज्ञानमय कोश की स्थिति में होता है, तो उसे ऐसा अनुभव होता है मानो उसके भीतर तीन कठोर, गठीली, चमकदार हलचल करती हुई हलकी गाँठे हैं। इनमें से एक गाँठ मूत्राशय के समीप, दूसरी आमाशय के ऊर्ध्व भाग में और तीसरी मस्तिष्क के मध्य केन्द्र में विदित होती है। इन गाँठों में से मूत्राशय वाली ग्रन्थि को रुद्रग्रन्थि, आमाशय वाली को विष्णु ग्रन्थि और शिर वाली को ब्रह्म ग्रन्थि कहते हैं। इन्हीं तीनों को दूसरे शब्दों में महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती भी कहते हैं।

इन तीन महाग्रन्थियों की दो सहायक ग्रन्थियाँ भी होती हैं, जो मेरुदण्ड स्थित सुषुम्ना नाड़ी के मध्य में रहने वाली ब्रह्मनाड़ी के भीतर रहती हैं। इन्हें ही चक्र भी कहते हैं। रुद्रग्रन्थि की शाखा ग्रन्थियाँ मूलाधार चक्र और स्वाधिष्ठान कहलाती हैं। विष्णु ग्रन्थि की दो शाखायें मणिपूरक चक्र और अनाहत चक्र हैं। मस्तिष्क में निवास करने वाली ब्रह्म ग्रन्थि के सहायक ग्रन्थि चक्रों को विशुद्धि चक्र और आज्ञा चक्र कहा जाता है। हठयोग की विधि से षट्- चक्रों का वेधन किया जाता है।

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