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कंस ने जब अक्रूर जी को श्रीकृष्ण व श्रीबलराम को धनुषयज्ञ में मथुरा बुलवाने हेतु गोकुल भेजा तो अक्रूर जी ने समझा कि आज मैं धन्य हो गया।
जब वे मथुरा से गोकुल की ओर चले तो उनका मन श्रीकृष्ण की भक्ति से भर गया।
वे आश्चर्य करने लगे कि मैंने पूर्वजन्म में ऐसा कौनसा अनुष्ठान या दान कर दिया है जिसके प्रभाव से आज नन्दनन्दन भगवान् का मुझे दर्शन होने वाला है ?
यद्यपि मैं भोगी और अधम हूँ पर जैसे नदी में बहते बहते कोई एक घास किनारे पर आ जाए, इसी तरह कर्मफल भोग रहे असंख्य मनुष्यों में से आज भगवान् के चरणदर्शन कर कृतकृत्य होने की मेरी बारी आ गई है।
उस पाखण्डी दुष्ट कंस ने मुझ पर बड़ा उपकार किया है क्योंकि उसकी प्रेरणा से ही आज मुझे अम्बरीष आदि महाभागवतों द्वारा सेवित भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमलों का दर्शन होने वाला है।
इस तरह उत्सुकता से सोच सोचकर अक्रूर जी तरह तरह से भगवान् का ध्यान करते हुए चल रहे थे।
उनके मन में भाव आया कि जैसे ही नराकृति परब्रह्म भगवान् श्रीकृष्ण मुझे दिखेंगे वैसे ही मैं उनके श्रीचरणों में अपने रथ से छलांग लगाकर कूद जाऊंगा और दण्डवत प्रणाम की अवस्था में पड़ा रहूंगा।
मैं उनके साथ वन में विहार करने वाले एक एक गोप को प्रणाम करूँगा।
जब भगवान् श्रीकृष्ण मुझे अपने चरणों में पड़ा देखेंगे तो वे मेरे सिर पर अपना वह करकमल अवश्य रखेंगे जिससे वे कालसर्प से पीड़ित और डरे हुए मनुष्यों को अभयदान देते हैं।
तब महाभागवत अक्रूर जी विश्वास के साथ कहते हैं कि यद्यपि मैं कंस का दूत हूँ और उसी के द्वारा भेजा गया हूँ पर तब भी भगवान् मुझे शत्रु नहीं समझेंगे क्योंकि मैं बाहर से तो कंस के अनुसार चलता हूँ पर हृदय में निरन्तर भगवान् श्रीकृष्ण के ही अधीन रहता हूँ और वे इस बात को जानते हैं।
जब मैं उनके श्रीचरणों में पड़ा हुआ और हाथ जोड़े हुए उन्हें देखूंगा, तब वे अपनी मन्द मन्द मुस्कान से मुझे देखेंगे, इससे मेरे समस्त पाप नष्ट हो जाएंगे, और जब मुझे अपनी बांहों में भर लेंगे तो मेरी कर्मजनित पापों से दूषित देह पवित्र हो जाएगी, तब मैं उनके समक्ष हाथ जोड़े खड़ा रहूंगा और वे मुझे अक्रूर कहकर पुकारेंगे, तब मैं धन्य हो जाऊंगा। इस तरह श्रीकृष्ण के विषय में सोचते हुए, भाव के महासागर में हिलोरें खाते अक्रूर गोकुल को जा रहे थे तभी अचानक उनकी दृष्टि गोचरभूमि की धरती पर धूल में अंकित विलक्षण चरणचिह्नों पर पड़ी।
अक्रूर को उन पैरों के चिह्न दिखाई दिए जिनकी शुद्ध धूल को समस्त ब्रह्माण्डों के लोकपाल अपने मुकुटों में धारण करते हैं। भगवान् के वे चरणचिह्न कमल, जौ तथा अंकुश जैसे श्रीचिह्नों से अंकित थे। उन्हें देखकर ऐसा लगता था मानो पृथ्वी ने आभूषण धारण कर रखे हों।
ऐसे विलक्षण चरणचिह्न देखकर अक्रूर के हृदय में आनन्द इतना अधिक बढ़ गया कि वे प्रेम के उद्रेक से मतवाले हो गए और खुद को संभाल न सके।
भगवान् के चरणचिह्नों को देखने से उत्पन्न आनन्द से अत्यधिक विह्वल हो जाने से शुद्ध-प्रेम के कारण उनके रोंगटे खड़े हो गये और आँखों से आँसू बहने लगे।
वे अपनी पूर्वसंकल्पित विधि के अनुसार तुरन्त रथ से नीचे कूद पड़े और उन चरणचिह्नों पर चीखकर बार बार लोटने लगे कि "ओह, यह तो मेरे प्रभु के श्रीचरणों की स्पर्शित वही धूल है।"
जब अक्रूरजी गोकुल में पहुँचे तो उन्हें भगवान् श्रीकृष्ण और भगवान् श्रीबलराम जी का अद्भुत दर्शन हुआ।
एक श्यामसुंदर थे तो एक गौरसुन्दर! पृथ्वी के भार को हरण करने के लिए अवतीर्ण दोनों सद्यःस्नात भाई वनमालाएं और रत्नमालाएँ पहनकर मन्द मन्द मुस्कुरा रहे थे। उन दोनों का प्रकाश दिग्मण्डल के अंधकार को दूर कर रहा था, मानो मरकत और चाँदी के पर्वत स्वर्ण से जड़े हुए प्रकाशित हो रहे हों।
परमानन्द में रोते भीगते और धूल में नहाए हुए अक्रूर जी रथ से कूद पड़े और दोनों को दण्डवत प्रणाम किया। उनके रोम रोम फड़क रहे थे कि ऐसी अभिभूत अवस्था में वे श्रीकृष्ण से अपना नाम तक न कह पाए कि, "मैं अक्रूर आपको प्रणाम करता हूँ।"
श्री शुकदेव गोस्वामी परीक्षित महाराज को कहते हैं कि हे राजन्, जबसे कंस ने आदेश दिया और जब तक महाभागवत अक्रूर जी का श्रीकृष्ण से मिलन हुआ, इस बीच अक्रूर जी के चित्त की जो दशा हुई, यह मनुष्य देह में जन्म का परमलाभ है।
जिस तरह अक्रूर जी अपना दम्भ, मान, अहंकार, भय और शोक का त्याग कर भगवान् के चरणों से स्पृष्ट उस पवित्र धूल में लोट लगा रहे थे वही जीव का परम पुरुषार्थ है।

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