साल 2015 में रक्षाबंधन पर दिल्ली से मेरठ पहुंचने में मुझे 7 घंटे (दोपहर से रात) लग गए थे। पहले तो हजारों की भीड़ में बस ढूंढना उसमें घुसना। फिर खड़े-खड़े सारा सफर तय करना। उस पर आनंद विहार जाम, मोहन नगर जाम, हिंडन जाम, मेरठ मोड़ जाम, राजनगर जाम, मुरादनगर-मोदीनगर। घर पहुंचते पहुंचते लगता था कि क्या पाप किए थे जो यहां पैदा हुए। और यह अकेला नहीं था कितनी ही शादियों में जब दिल्ली पहुंचे वहां फेरे शुरु हो गए। ट्रेनों की जैसी हालत इस रूट पर देखी कहीं नहीं देखी। जिसमें आपको हिलने की भी जगह न मिले। आप आर्थिक रूप से अच्छे हैं तो गाड़ी हो सकती है लेकिन जब सड़क पर जगह ही नहीं तो चलेंगे कहां?
लेकिन पहले सरकार बदली और फिर धीरे-धीरे हालत बदलनी शुरू हुई। एक फ्लाईओवर से धोड़ी सड़क चौड़ी करके, मोड़ पर टर्न थोड़ा स्मूथ करके, छोटे नए रास्ते बनाकर जाम खत्म किए गए। फिर मेरठ-दिल्ली एक्सप्रेस वे मील का पत्थर साबित हुआ। मुझे आज भी याद है शुरू-शुरू में लोग कैसे पूछते थे सही में 50 मिनट में पहुंच जाते हैं।
और आज तो जैसे एक सपना ही सच होना शुरू गया। अब भीड़ बसों के पीछे दौड़ नहीं लगाएगी, जानवरों की तरह लद कर नहीं जाना होगा। पब्लिक ट्रांसपोर्ट ऐसा होगा कि लोग अपनी कार छोड़कर 50 मिनट और 1 चौथाई से कम कीमत पर अपना सफर तय करेंगे। किसी भी पढ़ाई के लिए, कोई म्यूजिक क्लास के लिए, स्टेडिएम जाने के लिए दिल्ली में रहने की मजबूरी नहीं होगी। अब कमा-कमा कर किराया नहीं भरना होगा।
अब दिल्ली दूर नहीं रहेगी।
पहले की सरकारों के लिए यह सब चीजें जरूरी नहीं थी। एक फ्लाई ओवर भी बनता था तो कितने सालों में पूरा होगा इसकी गारंटी नहीं थी। आज सरकार 32 हजार करोड़ रुपए खर्च कर रही है ताकि आप और मैं और हमारे आने वाली पीढ़ियां वो सब न झेले जो हमने झेला है।
और हां जो मंदिर बनाना जानते हैं वो ही बुलट ट्रेन बनाना जानते हैं
500 किमी नहर खोद कर सूदूर दूर नहर का पानी ले जाना जानते हैं
वो ही आम आदमी के लिए वर्ल्ड क्लास ट्रेन बनाना भी जानते हैं
क्योंकि जिन्हें नहीं करना वो कुछ भी नहीं करेंगे
क्योंकि उन्हें आज तक बिना कुछ किए ही सब मिला है

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