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द्रोण को दण्डित करों हे! पार्थ तुम।
हर दिशा एकलव्य होना चाहती है।

रिश्ते तपन से चुर रहें है भट्टियों में,
शादियां अब भव्य होना चाहती है।

क्या गरल है क्या तरल बस शौक से,
हर घूँट मादक दृव्य होना चाहती है।

सब समेटो देश के साहित्य को।
गालियां अब श्रव्य होना चाहती है।

पुरुषोत्तमी वैभव का पर्दा फाड़कर।
नग्नता अब नव्य होना चाहती है।

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