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पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी कभी पहाड़ के काम न आयी, पानी पहाड़ से शुरु हो पूरे देश की प्यास बुझाता, पर तकदीर पहाड़ देखो खेत तो क्या मानुष की प्यास नहीं बुझती, जवानी पहाड़ की देश के काम तो आती पर पहाड़ दिन ब दिन खोखले होते जाते, विशाल मजबूत शिलाऐ खुद का वजूद न जाने कब खो बैठी है!
यह है पहाड़ की संस्कृति और पहचान, एक एक घर को मंदिर की तरह सजाया गया, लोग जुटे तो बिकास योजनाएं भी अमल में लाई गयी, हरे भरे खेत खलिहानो ने याद दिला दी संपन्न पहाड़ी व्यवस्था की, दूर दूर की पहाड़ियां भी नतमस्तक इस संपन्नता और सुंदरता पर,कभी शानदार आयतें लिखी जाती थी पहाड़ में संपन्नता की वो बात अलग है की काश्तकारी की परिपाटी आज बदल गयी, लोग खेत खलिहानों से बिरक्त होते गये!!

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