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मेरी माँ की गंभीर बीमारी और उनके आख़िरी दिनों को देखते हुए Vinod Kapri ने ये कविता लिखी
आप सबको ज़रूर पढ़नी चाहिए
“माँ जब मृत्यु शैया पर होती है, वो रोती नहीं सिर्फ सोचती है”
क्या चल रहा होता है माँ के भीतर , इससे बेहतर शायद ही कभी किसी ने लिखा हो
मां जब मृत्यु शैया पर होती है
वह रोती नहीं सिर्फ सोचती है
वह सोचती है कि क्या सोच रहे होगें बच्चे
सोच-सोच कर आधे हो रहे होगें पापा
पूरा घर सोच में डूबा होगा
वह ठीक होती तो खुरच-खुरच के
निकाल देती सारी सोचें
वह अपनी दर्द छुपाती मुस्कुान से
तब भी कोशिश करना जारी रखती है
मां जब मृत्यु शैया पर होती है
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मां जब मृत्यु शैया पर होती है
वह रोती नहीं सिर्फ सोचती है
वो सोचती है
उस रसोईं के बारे में
जहां नहीं जा पाई महीने से
जब से खड़ा होना मुहाल हो गया है
धूप न लगने से खराब तो नहीं हो गया होगा
आम का वो अचार
जो ताजा ताजा डिब्बे में भरा था तब
काली मिर्च का डिब्बा खुला तो नहीं रह गया होगा
घर के बाहर पड़ा दूध का पैकेट
कई दिनों तक वहीं तो नहीं रह गया होगा
मां का सारा सोचना मां तक ही रहता है
मां किसी से कुछ भी कहने से बचती है
मां जब मृत्यु शैया पर होती है
माँ जब मृत्यु शैया पर होती है
वो रोती नहीं, वो सोचती है
वो सोचती है-
ठंड की गुनगुनी धूप में
बच्चों को कड़ी चावल कौन खिलाएगा
मूंग दाल का हलवा कौन बनाएगा
अदरक इलायची की चाय कौन पिलाएगा
थोड़ा और खा ले
कुछ और पी ले
बार बार कौन कहेगा
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मां जब मृत्यु शैया पर होती है
वह रोती नहीं सिर्फ सोचती है
वह सोचती है-ये कैसी बच्ची है
जो दिन भर साथ रहती है
रात को सोती नहीं है
छिप-छिप कर रोती है
मेरी बीमारी भी मुझसे छिपाती है
फिर नकली हंसी के साथ
मेरे पास आती है
खुद अंदर से घबराती है
पर मुझे दिलासा देती है
मां तो फाइटर है
जो लड़ती, भिड़ती और जीत जाती है
वह रोती नहीं सिर्फ सोचती है
मां जब मृत्यु शैया पर होती है
माँ जब मृत्यु शैया पर होती है
वो रोती नहीं, वो सोचती है
वो सोचती है-
हे ईश्वर मेरे साथ ये क्या किया कि
बच्चे ना अपना जन्मदिन मना रहे हैं
ना अपनी ख़ुशियाँ बांट पा रहें हैं
एक के बाद कई मौक़े गँवा रहे हैं
बिस्तर पर पड़े एक निर्जीव शरीर का
ख़ुशी ख़ुशी मल मूत्र उठा रहे हैं
अंताक्षरी खिला रहे हैं
किसियो और पुच्चियों की झड़ी लगा रहे हैं
माँ जब मृत्यु शैया पर होती है
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मां जब मृत्यु शैया पर होती है
वह रोती नहीं सिर्फ सोचती है
वो सोचती है
काम-धाम,घर-परिवार छोड़कर
ये बच्चे क्यों मेरे पीछे लगे हैं
पापा भी अपनी बीमारी को भूलकर
क्यों मेरे लिए जुटे पड़े हैं
सबके काम का कितना नुकसान हो रहा होगा
सबकी सेहत पर क्या-क्या असर पड़ रहा होगा
कितना पैसा कहां खर्च हो रहा होगा
परिवार का हर सदस्य क्या-क्या सह रहा होगा
सांस के साथ छिपाकर आह भरती है
मां जब मृ्त्यु शैया पर होती है
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मां जब मृत्यु शैया पर होती है
वह रोती नहीं सिर्फ सोचती है
तब भी जब साफ-साफ दिखना बंद हो जाता है
अपनों की आवाजों का सिरा थम नहीं पाता है
देह का हर हिस्सा साथ देने से इनकार करने लगता है
मन भी एक वक्त में मानने से मना करने लगता है
ऐसी स्थिति में भी मां भीतर से लड़ रही होती है
मां जब मृ्त्यु शैया पर होती है
वह रोती नहीं सिर्फ सोचती है
मां को कोई युक्ति चाहिए
उसे अब मुक्ति चाहिए
उसे मुक्ति चाहिए ताकि पापा ले सकें
समय पर दवाई
बच्चे जा सकें काम पर
बाथरूम से आने वाली सिसकियां थमें
दर्द घर के किसी कोने में न रूके
सबकुछ अपनी गति पर चले
और वह अपने गंतव्य की ओर बढ़े
मकान को घर करने वाली मां
अपने भीतर घर बसा लेती है
और फिर जीवन देने वाली माँ
सबको जीवन देने के लिए
एक बार फिर
खुद को स्वाहा कर देती है
मां जब मृत्यु शैया पर होती है
वह रोती नहीं, सिर्फ़ सोचती है

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