अपनी कमीज के बारे में वह लापरवाह नहीं था, पर कमीज बचाकर वह काम नहीं कर पाता था, इसलिए भैंस, गाय का गोबर उठाने के पहले वह कमीज उतार दिया करता था। इसके बाद भी कमीज गंदी हो जाती थी।
साहब को साफ-सुथरे नौकर की सनक थी। पर बाई साहब संतुष्ट थीं। एक बार नौकर की गलती के कारण नाराज हुए दूर के रिश्तेदारों की उन्होंने परवाह नहीं की। बाई साहब जानती थीं कि साहब का चचेरा भाई नाराज होकर भी चचेरा भाई रहेगा। लेकिन नौकर नाराज हुआ तो नौकरी छोड़कर उनका नौकर नहीं रहेगा। जहाँ-जहाँ बाई साहब नौकर को लेकर साथ जातीं, वहाँ उसकी फिक्र करती थीं, कि उसे चाय मिली या नहीं, खाने को कुछ मिला या नहीं! बढ़िया काँच का गिलास उससे गिरकर टूट गया।
बाई साहब ने उसे डाँटा। जल्दी-जल्दी काँच उठाते समय उसकी एक उँगली कट गई। घबराकर उसने अपनी कमीज से खून से लथपथ हाथ को पोंछ लिया। काँच फेंककर जब वह आया तो बूँद-बूँद खून साफ-सुथरे चमकते फर्श पर टपकता गया।
खाना खाते-खाते साहब की नजर उसकी कमीज पर पड़ गई। साहब ने उसे बहुत डाँटा। बाई साहब ने मिट्टी के तेल में उँगली डुबाकर पट्टी बाँध लेने को कहा। दूसरे दिन सुबह वह लड़का नहीं दिखा। रात को भाग गया। लेकिन कमीज वह छोड़ गया था। साफ-सुथरी धुली कमीज नौकर खोली में रख गया था। कमीज को गंदी छोड़कर भागने की उसकी हिम्मत नहीं थी। उसका अपराध और बढ़ जाता।
- पुस्तक अंश (नौकर की कमीज, विनोद कुमार शुक्ल)
