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पौड़ी गढ़वाल के खिर्सू क्षेत्र का कठबद्दी मेला एक अनूठा और महत्वपूर्ण सांस्कृतिक आयोजन है जो न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है बल्कि सामुदायिक एकता और स्थानीय परंपराओं को भी जीवंत रखता है।
कठबद्दी मेले का महत्व:
* ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: इस मेले की जड़ें सदियों पुरानी हैं। ऐतिहासिक अभिलेखों के अनुसार, 1808 में कैप्टन रेफर ने श्रीनगर (गढ़वाल) में अलकनंदा नदी के पार इस मेले को होते हुए देखा था। उस समय, "बद्दी" या "बेड़ा" जाति का एक व्यक्ति लकड़ी के मंच पर बैठकर पहाड़ी की चोटी से नदी के किनारे तक बंधी रस्सी के सहारे नीचे आता था। यह परंपरा जोखिम भरी थी और इसमें जान का खतरा भी होता था। मान्यता है कि जिन गांवों को महादेव का संरक्षण प्राप्त था, वहीं यह मेला आयोजित होता था।
* वर्तमान स्वरूप: अब इस खतरनाक प्रथा में मनुष्य की जगह लकड़ी के ढांचे का उपयोग किया जाता है, जिसे "कठबद्दी" कहा जाता है। हालांकि, यह परंपरा आज भी स्थानीय लोगों के लिए बहुत महत्व रखती है।
* सामुदायिक एकता का प्रतीक: मेले का मुख्य आकर्षण लगभग 100 मीटर लंबी घास की रस्सी बनाना और उसे पूरे गांव में घुमाना है। यह रस्सी एकता, विरासत और आध्यात्मिक विश्वास का प्रतीक मानी जाती है। ग्रामीण पारंपरिक वेशभूषा में सजे-धजे इस रस्सी को तालबद्ध मंत्रोच्चारण के साथ खिर्सू के घुमावदार रास्तों से खींचते हैं।
* आशीर्वाद और समृद्धि की कामना: लोककथाओं के अनुसार, मेले में शामिल होकर और कठबद्दी रस्सी का एक टुकड़ा प्राप्त करने वालों को आने वाले वर्ष के लिए समृद्धि और सुरक्षा का आशीर्वाद मिलता है। यही कारण है कि इस मेले में सैकड़ों श्रद्धालु और जिज्ञासु पर्यटक भाग लेते हैं।
* स्थानीय संस्कृति का प्रदर्शन: कठबद्दी मेला सिर्फ एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि यह स्थानीय संस्कृति का जीवंत प्रदर्शन भी है। मेले में पारंपरिक नृत्य, संगीत और लोक कलाओं का प्रदर्शन किया जाता है।

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