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बारह अगस्त उन्नीस सौ अड़तालीस,
वेम्बली का मैदान था गवाह,
हाल ही में आज़ाद हुआ भारत,
और सामने था सदियों का इतिहास।

विभाजन के घाव अभी ताज़ा थे,
घर उजड़े, चेहरे सूने थे,
पैसे कम, साधन कमज़ोर,
पर इरादे हिमालय जैसे मज़बूत थे।

पहली बार पहनी थी भारत की जर्सी,
दिल में था तिरंगे का मान,
किशन लाल की कप्तानी में उतरे,
जैसे रण में उतरे हों वीर जवान।

बलबीर के पैरों में थी बिजली,
गोल पर गोल बरसाते गए,
त्रिलोचन और पैट भी,
विजय के दीप जलाते गए।

चार - शून्य, और ब्रिटेन स्तब्ध,
दर्शकों में खामोशी छा गई,
जब तिरंगा ऊँचा लहराया,
तो हवा भी जैसे गुनगुनाने लगी।

राष्ट्रगान के सुरों में,
हज़ारों दिल धड़क रहे थे,
और बलबीर की आँखों में
आज़ादी के असली मायने चमक रहे थे।

वो जीत सिर्फ़ हॉकी की नहीं थी,
वो जीत आत्मसम्मान की थी,
वो पल आज भी कहता है
तिरंगे के आगे, हर जीत छोटी है...!!

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