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अक्सर गाँव और छोटे कस्बों में बेटियों की पढ़ाई बीच में ही रोक दी जाती है ताकि जल्दी शादी कर दी जाए। लेकिन इस माँ ने परंपराओं के दबाव को तोड़ते हुए अपनी चारों बेटियों के लिए नया रास्ता चुना।

उन्होंने शादी के खर्च और दहेज के बोझ को दरकिनार कर बेटियों की शिक्षा में निवेश किया। स्कूल और कॉलेज की फीस भरने के लिए उन्होंने खेतों में काम किया, दूसरों के घरों में मेहनत की और कई बार अपनी बुनियादी ज़रूरतों का त्याग किया।

समाज से ताने भी मिले—"इतना पढ़ा-लिखा कर क्या करना है, आखिर शादी ही तो करनी है।" लेकिन माँ का जवाब साफ था—"मेरी बेटियाँ पहले नौकरी करेंगी, अपने पैरों पर खड़ी होंगी।"

परिणाम यह हुआ कि चारों बहनों ने माँ के संघर्ष को सार्थक करते हुए मेहनत की और आज सभी सरकारी नौकरी में हैं। यह उपलब्धि सिर्फ उनकी व्यक्तिगत जीत नहीं, बल्कि उस सोच की जीत है जो मानती है कि बेटियों को बराबरी का अवसर देना ही सही मायने में उनका भविष्य सुरक्षित करना है।

सरकारी नौकरी के ज़रिए बेटियाँ न सिर्फ आत्मनिर्भर बनीं, बल्कि अपने परिवार की आर्थिक स्थिति भी मजबूत कर पाईं।

अब वे अपनी माँ के संघर्ष का सम्मान करते हुए समाज में उन बेटियों के लिए प्रेरणा बन गई हैं जिन्हें अक्सर शादी के नाम पर अपने सपनों से समझौता करना पड़ता है।

यह इस बात का प्रमाण है कि जब शिक्षा और रोज़गार को प्राथमिकता दी जाती है, तो बेटियाँ परिवार और समाज दोनों का नाम रोशन कर सकती हैं।

माँ और बेटियों की यह यात्रा हमें यह सिखाती है कि बदलाव घर से ही शुरू होता है—जहाँ शादी से पहले आत्मनिर्भरता और शिक्षा को महत्व दिया जाए।

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