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केरल के कासरगोड ज़िले के एक छोटे से गाँव कन्नारिया की यह कहानी हमें याद दिलाती है कि परिवार खून से नहीं, दिल से बनते हैं।
करीब 12 साल पहले, एक खेत मज़दूर की मौत के बाद उसकी 10 साल की बेटी राजेश्वरी पूरी तरह अकेली रह गई। माँ पहले ही गुजर चुकी थीं। रिश्तेदारों के नाम पर कोई सहारा नहीं था। उसी खेत में काम करने वाले अब्दुल्ला और खदीजा ने तब कोई सवाल नहीं किया—न धर्म का, न समाज का। उन्होंने राजेश्वरी को अपनी बेटी बना लिया।
राजेश्वरी जन्म से हिंदू थी, और अब्दुल्ला-खदीजा ने उसे उसी प्यार, उसी संस्कार और उसी सम्मान के साथ पाला, जिस तरह हर माता-पिता अपनी संतान को पालते हैं। गाँव में वह हमेशा “अब्दुल्ला की बेटी” के नाम से जानी गई। उनके तीन बच्चों—शमीम, नजीब और शरीफ—के साथ वह एक परिवार बनकर बड़ी हुई। उसकी पढ़ाई, परवरिश और भविष्य—सब कुछ उसी घर की ज़िम्मेदारी बना।
जब राजेश्वरी 22 साल की हुई, तो उसके माता-पिता ने उसके लिए उसी धर्म में जीवनसाथी ढूँढा, जिससे वह जुड़ी थी। और फिर, पूरे सम्मान और खुशी के साथ, उन्होंने अपनी बेटी की शादी एक स्थानीय मंदिर में, सभी हिंदू रीति-रिवाज़ों के साथ करवाई।
उस दिन मंदिर में आशीर्वाद देते अब्दुल्ला और खदीजा के चेहरे पर जो सुकून था, वह किसी भी शब्द से बड़ा था। क्योंकि उन्होंने अपना फ़र्ज़ नहीं निभाया था—उन्होंने प्यार निभाया था। यह कहानी किसी धर्म की नहीं, यह कहानी इंसानियत की है।
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