आज भी हमारे साथ है, 
मेरी दादी का संदूक। 
बहुत सादा है मगर, 
यादों के क़ीमती मोती जड़े है इसमें। 
ख़ाली है और पेंदे में छेद हैं, 
फिर भी जाने क्यूँ लगता है, 
दादी के छुपाए बतासे पड़े है इसमें। 
कितनी ज़िद के बाद, 
चार बतासे देती थी। 
वो जाने अनजाने में, 
हमारे धैर्य की परीक्षा लेती थी। 
कोई ताला नही है इस पर, 
कुछ हिस्सा उखड़ चुका है। 
इसने देखा है समृद्धि को, 
बुरे वक़्त से भी लड़ चुका है। 
एक यादों का समंदर है इसमें, 
सुख दुःख वाली मौजें हैं। 
आजकल की अलमारियों की तरह, 
इसके भीतर भी एक कपाट है, 
वो जिसमें बुरे दौर से बचाने वाली, 
पूँजी रखी जाती थी। 
मगर इसमें से कुछ सिक्के, 
मेले,होली,दिवाली पर, 
हमारी जेब में आ खनकते थे। 
पापा के दिये जेब ख़र्चे को, 
हम इसी कपाट में जो रखते थे। 
गोंद के लड्डूओं की बरनी, 
बड़ी इतराती थी इसमें। 
कोने में टँगी सूखे मेवे की एक थेली, 
खीर,हलवे वाले दिन दिखाई देती थी। 
हमारी शैतानियों के चलते, 
कभी कभी वो क्रिकेट का बल्ला, 
इसमें जमा कर दिया जाता था, 
कितनी शर्तों के साथ मिलता था। 
शैतानियाँ,थेलियाँ,बरनी,बल्ला,सिक्के, 
कुछ भी नही अब इसमें। 
और इसके ताले कूँची रखें हैं, 
दादी की तस्वीर के अहाते में। 
यादों की यही वसियत, 
विरासत का सुनहरा स्वरूप। 
आज भी हमारे साथ है, 
मेरी दादी का संदूक.....😍😍😘😘
 
         
		  
		  
         
         
         
         
         
         
		  
         
         
		 