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तुम्हारे शहर की रौनक भी खूब तर है मगर !!
मेरे गांव की जो शाम है वो तमाम है !! ❤️‍🩹

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आपके अंतिम संस्कार के बाद क्या होगा ?
कुछ ही घंटों में रोने की आवाज पूरी तरह से बंद हो जाएगी....रिश्तेदारों के लिए खाना बनवाने या मंगवाने में जुट जायेगा परिवार,
कुछ पुरुष सोने से पहले चाय की दुकान पर टहलने निकल जाएंगे।
कोई रिश्तेदार आपके बेटे या बेटी से फोन पर बात करेगा कि आपात स्थिति के कारण वह व्यक्तिगत रूप से नहीं आ पा रहा है और तो और इधर आपका मृत शरीर चिता पर जल रहा होगा, उधर आपको अंतिम विदाई देने आए लोगों में से कोई फोन पर किसी से बतिया रहा होगा, कोई वाट्स एप, फेसबुक पर व्यस्त होगा तो दूर झुंड बनाकर बैठे कुछ लोग घर परिवार, व्यवसाय, खेल आदि अन्य विषयों पर चर्चा कर रहे होंगे...अगले दिन रात के खाने के बाद, कुछ रिश्तेदार कम हो जाएंगे, और कुछ लोग सब्जी में पर्याप्त नमक नहीं होने की शिकायत करते होंगे।
भीड़ धीरे धीरे छंटने लगेगी ,आपका कार्यालय या आपकी दुकान आपकी जगह लेने के लिए किसी ओर को ढूंढने में जल्दबाजी करेगा।
महीने के अंत तक आपके अपने घर के लोग कोई कॉमेडी शो देख कर हंसने लगेगा।
सबका जीवन सामान्य हो जाएगा। आपको इस दुनिया में आश्चर्यजनक गति से भुला दिया जाएगा। इस बीच आपकी प्रथम वर्ष पुण्यतिथि भव्य तरीके से मनाई जाएगी। पलक झपकते ही साल बीत गए और आपके बारे में बात करने वाला कोई नहीं है...एक दिन बस पुरानी तस्वीरों को देखकर आपका कोई बेहद करीबी आपको याद कर सकता है।
लोग आपको आसानी से भूलने का इंतजार कर रहे हैं, फिर आप किसके लिए दौड़ रहे हो? और आप किसके लिए चिंतित हैं? क्या आप अपने घर, परिवार, रिश्तेदार को संतुष्ट करने के लिए जीवन जी रहे हैं?
जिंदगी एक बार ही होती है, बस इसे जी भर के जी लो… और जितना हो सके इसके परम उद्देश्य के जितना निकट पहुंच सको, पहुंचने का कोशिश करें ।

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जैसलमेर क़िला में वर्ष 1948 में किसी विवाह समारोह का दृश्य।

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क्या आपने कभी पढ़ा है कि हल्दीघाटी के बाद अगले १० साल में मेवाड़ में क्या हुआ..इतिहास से जो पन्ने हटा दिए गए हैं उन्हें वापस संकलित करना ही होगा क्यूंकि वही हिन्दू रेजिस्टेंस और शौर्य के प्रतीक हैं. इतिहास में तो ये भी नहीं पढ़ाया गया है की हल्दीघाटी युद्ध में जब महाराणा प्रताप ने कुंवर मानसिंह के हाथी पर जब प्रहार किया तो शाही फ़ौज पांच छह कोस दूर तक भाग गई थी और अकबर के आने की अफवाह से पुनः युद्ध में सम्मिलित हुई है. ये वाकया अबुल फज़ल की पुस्तक अकबरनामा में दर्ज है.
क्या हल्दी घाटी अलग से एक युद्ध था..या एक बड़े युद्ध की छोटी सी घटनाओं में से बस एक शुरूआती घटना..महाराणा प्रताप को इतिहासकारों ने हल्दीघाटी तक ही सिमित करके मेवाड़ के इतिहास के साथ बहुत बड़ा अन्याय किया है. वास्तविकता में हल्दीघाटी का युद्ध , महाराणा प्रताप और मुगलो के बीच हुए कई युद्धों की शुरुआत भर था. मुग़ल न तो प्रताप को पकड़ सके और न ही मेवाड़ पर अधिपत्य जमा सके. हल्दीघाटी के बाद क्या हुआ वो हम बताते हैं.
हल्दी घाटी के युद्ध के बाद महाराणा के पास सिर्फ 7000 सैनिक ही बचे थे..और कुछ ही समय में मुगलों का कुम्भलगढ़, गोगुंदा , उदयपुर और आसपास के ठिकानों पर अधिकार हो गया था. उस स्थिति में महाराणा ने “गुरिल्ला युद्ध” की योजना बनायीं और मुगलों को कभी भी मेवाड़ में सेटल नहीं होने दिया. महराणा के शौर्य से विचलित अकबर ने उनको दबाने के लिए 1576 में हुए हल्दीघाटी के बाद भी हर साल 1577 से 1582 के बीच एक एक लाख के सैन्यबल भेजे जो कि महाराणा को झुकाने में नाकामयाब रहे.
हल्दीघाटी युद्ध के पश्चात् महाराणा प्रताप के खजांची भामाशाह और उनके भाई ताराचंद मालवा से दंड के पच्चीस लाख रुपये और दो हज़ार अशर्फिया लेकर हाज़िर हुए. इस घटना के बाद महाराणा प्रताप ने भामाशाह का बहुत सम्मान किया और दिवेर पर हमले की योजना बनाई। भामाशाह ने जितना धन महाराणा को राज्य की सेवा के लिए दिया उस से 25 हज़ार सैनिकों को 12 साल तक रसद दी जा सकती थी. बस फिर क्या था..महाराणा ने फिर से अपनी सेना संगठित करनी शुरू की और कुछ ही समय में 40000 लडाकों की एक शक्तिशाली सेना तैयार हो गयी.
उसके बाद शुरू हुआ हल्दीघाटी युद्ध का दूसरा भाग जिसको इतिहास से एक षड्यंत्र के तहत या तो हटा दिया गया है या एकदम दरकिनार कर दिया गया है. इसे बैटल ऑफ़ दिवेर कहा गया गया है.
बात सन १५८२ की है, विजयदशमी का दिन था और महराणा ने अपनी नयी संगठित सेना के साथ मेवाड़ को वापस स्वतंत्र कराने का प्रण लिया. उसके बाद सेना को दो हिस्सों में विभाजित करके युद्ध का बिगुल फूंक दिया..एक टुकड़ी की कमान स्वंय महाराणा के हाथ थी दूसरी टुकड़ी का नेतृत्व उनके पुत्र अमर सिंह कर रहे थे. कर्नल टॉड ने भी अपनी किताब में हल्दीघाटी को Thermopylae of Mewar और दिवेर के युद्ध को राजस्थान का मैराथन बताया है. ये वही घटनाक्रम हैं जिनके इर्द गिर्द आप फिल्म 300 देख चुके हैं. कर्नल टॉड ने भी महाराणा और उनकी सेना के शौर्य, तेज और देश के प्रति उनके अभिमान को स्पार्टन्स के तुल्य ही बताया है जो युद्ध भूमि में अपने से 4 गुना बड़ी सेना से यूँ ही टकरा जाते थे.
दिवेर का युद्ध बड़ा भीषण था, महाराणा प्रताप की सेना ने महाराजकुमार अमर सिंह के नेतृत्व में दिवेर थाने पर हमला किया , हज़ारो की संख्या में मुग़ल, राजपूती तलवारो बरछो भालो और कटारो से बींध दिए गए। युद्ध में महाराजकुमार अमरसिंह ने सुलतान खान मुग़ल को बरछा मारा जो सुल्तान खान और उसके घोड़े को काटता हुआ निकल गया.उसी युद्ध में एक अन्य राजपूत की तलवार एक हाथी पर लगी और उसका पैर काट कर निकल गई। महाराणा प्रताप ने बहलेखान मुगल के सर पर वार किया और तलवार से उसे घोड़े समेत काट दिया। शौर्य की ये बानगी इतिहास में कहीं देखने को नहीं मिलती है. उसके बाद यह कहावत बनी की मेवाड़ में सवार को एक ही वार में घोड़े समेत काट दिया जाता है.ये घटनाये मुगलो को भयभीत करने के लिए बहुत थी। बचे खुचे ३६००० मुग़ल सैनिकों ने महाराणा के सामने आत्म समर्पण किया. दिवेर के युद्ध ने मुगलो का मनोबल इस तरह तोड़ दिया की जिसके परिणाम स्वरुप मुगलों को मेवाड़ में बनायीं अपनी सारी 36 थानों, ठिकानों को छोड़ के भागना पड़ा, यहाँ तक की जब मुगल कुम्भलगढ़ का किला तक रातो रात खाली कर भाग गए.
दिवेर के युद्ध के बाद प्रताप ने गोगुन्दा , कुम्भलगढ़ , बस्सी, चावंड , जावर , मदारिया , मोही , माण्डलगढ़ जैसे महत्त्वपूर्ण ठिकानो पर कब्ज़ा कर लिया। इसके बाद भी महाराणा और उनकी सेना ने अपना अभियान जारी रखते हुए सिर्फ चित्तौड़ कोछोड़ के मेवाड़ के सारे ठिकाने/दुर्ग वापस स्वतंत्र करा लिए.
अधिकांश मेवाड़ को पुनः कब्जाने के बाद महाराणा प्रताप ने आदेश निकाला की अगर कोई एक बिस्वा जमीन भी खेती करके मुसलमानो को हासिल (टैक्स) देगा , उसका सर काट दिया जायेगा। इसके बाद मेवाड़ और आस पास के बचे खुचे शाही ठिकानो पर रसद पूरी सुरक्षा के साथ अजमेर से मगाई जाती थी.
दिवेर का युद्ध न केवल महाराणा प्रताप बल्कि मुगलो के इतिहास में भी बहुत निर्णायक रहा। मुट्ठी भर राजपूतो ने पुरे भारतीय उपमहाद्वीप पर राज करने वाले मुगलो के ह्रदय में भय भर दिया। दिवेर के युद्ध ने मेवाड़ में अकबर की विजय के सिलसिले पर न सिर्फ विराम लगा दिया बल्कि मुगलो में ऐसे भय का संचार कर दिया की अकबर के समय में मेवाड़ पर बड़े आक्रमण लगभग बंद हो गए.
इस घटना से क्रोधित अकबर ने हर साल लाखों सैनिकों के सैन्य बल अलग अलग सेनापतियों के नेतृत्व में मेवाड़ भेजने जारी रखे लेकिन उसे कोई सफलता नहीं मिली. अकबर खुद 6 महीने मेवाड़ पर चढ़ाई करने के मकसद से मेवाड़ के आस पास डेरा डाले रहा लेकिन ये महराणा द्वारा बहलोल खान को उसके घोड़े समेत आधा चीर देने के ही डर था कि वो सीधे तौर पे कभी मेवाड़ पे चढ़ाई करने नहीं आया.
ये इतिहास के वो पन्ने हैं जिनको दरबारी इतिहासकारों ने जानबूझ कर पाठ्यक्रम से गायब कर दिया है. जिन्हें अब वापस करने का प्रयास किया जा रहा है.

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get off work~हिंदी में कैसे बोलना है? काम खत्म हो गया✔️?

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कश्मीर के कछवाहा
मुगल काल में कश्मीर एक मुसलमान वंश के अधिकार में था।
ईसवी 1586 में कश्मीर के सुल्तान यूसुफ खां के विरुद्ध आमेर के राजा भगवानदास जी को बादशाह अकबर ने भेजा।
उसने 28 मार्च ईस्वी 1586 को सुल्तान को लाकर बादशाह के सामने हाजिर किया तब कश्मीर मुगल साम्राज्य का भाग बन गया।
उस आक्रमण में राजा भगवानदास जी के साथ उनके काका जगमाल का पुत्र रामचंद्र भी था।
कश्मीर को साम्राज्य में मिलाने पर रामचंद्र की नियुक्ति की गई, तथा वही उनको जागीर भी मिली इस प्रकार कश्मीर के कछवाह वंश के रामचंद्र प्रवर्तक हुए ।
रामचंद्र के पिता जगमाल जी आमेर नरेश पृथ्वीराज के पुत्र थे उनको बादशाह ने नारायणा जागीर में दिया था रामचंद्र का 500 का मनसब प्रदान किया।
उसने अपनी कुलदेवी जमवाय माता के नाम पर जम्मू शहर बसाया इनके वंशज मीरपुर में रहे। साथ ही जमवाय माता का मंदिर भी बनवाया।
इन्होंने कश्मीर के पश्चिम में भारत - पाक सीमा पर रामगढ़ गांव भी बसाया।
यह डोगरा प्रदेश होने से वे भी डोगरा कहलाने लगे।
वैसे यह जगमालोत कछवाहा है फिर इनकी एक शाखा कांगड़ा और एक चंबा गई बाद में की कई शाखाएं हुई
रामचंद्र के बाद क्रमशः सुमेहल देव, संग्राम देव, हरिदेव, पृथ्वीसिंह, गजेसिंह, ध्रुव, सूरत सिंह, जोरावर सिंह, किशोर सिंह, और गुलाब सिंह हुए।
गुलाब सिंह के समय में सिख सेना ने जम्मू पर आक्रमण किया इन्होंने उस आक्रमण का बड़ी वीरता से मुकाबला किया इनकी इस वीरता से महाराज रणजीतसिंह बड़ा प्रभावित हुआ।
उन्हें अपनी सेना में रख लिया, इनका एक भाई महाराज रणजीतसिंह का दीवान हुआ। महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद सिख साम्राज्य बुरा हाल हो गया।
अंग्रेजों से उनके जो युद्ध हुए उनमें प्रारंभ में तो वे जीते परंतु बाद में उनकी पराजय हुई।
अंग्रेजों ने लाहौर को घेर लिया तब गुलाब सिंह को मध्यस्त करके अंग्रेजों से संधि हुई ।
उसके अनुसार कश्मीर और हुजा सिख राज्य अंग्रेजों को दे दिया गया बाद में अंग्रेजों ने कश्मीर गुलाब सिंह को बेच दिया और उसे अलग राज्य मान लिया गया ।
गुलाब सिंह के बाद रणवीर सिंह, प्रताप सिंह, हरि सिंह और करण सिंह कश्मीर के शासक हुए।
महाराजा गुलाब सिंह जी के पराक्रमी पुत्र रणवीर सिंह जी ने कश्मीर में दंड संहिता लागू की जो आज भी प्रचलन में है।
इनकी वीरता पर एक दोहा इस प्रकार है -
अंग्रैजां आदर नहीं, ये राजा रणवीर।
केहर गळ को कांठलो, कर राख्याे कश्मीर।।
अर्थात : राजा रणवीर धन्य है जिन्होंने अंग्रेजों कि तनिक परवाह नहीं करता। उन्होंने कश्मीर को सिंह के गले का कंठा बना कर रखा कि कोई इसकी और आंख उठा कर नहीं देख सकता ।
1947 में भारत के आजाद होने व 565 रियासतों के एकीकरण के समय कश्मीर को सबसे बड़ी रियासत का सौभाग्य मिला। एकीकरण के समय यहां के राजा हरि सिंह जी थे।
प्रोफेसर राघवेन्द्र सिंह मनोहर लिखते है कि कश्मीर महाराजाओं का संपर्क आजादी बाद तक ढुंढा़ड के कछवाहों से बना रहा।
महाराजा हरि सिंह जी एक बार खंगारोत ( कछवाहा ) के ठिकाने जोबनेर पधारे और राव नरेंद्र सिंह जी जोबनेर के साथ एक थाली में भोजन किया ।
महाराजा मान सिंह जी द्वितीय के राजतिलक समारोह में भी हरी सिंह जी उपस्थित हुए।
आजादी बाद हरी सिंह जी के पुत्र महाराजा करण सिंह जी को कश्मीर का सदरे रियासत बनाया गया। इसके बाद कश्मीर केंद्रीय मंत्रिमंडल में भी इंदिरा गांधी की प्रधानमंत्रीत्व में वे मंत्री रहे।
यह बड़े विद्वान थे उन्होंने कई पुस्तकें भी लिखी है।
कश्मीर में कछवाह की शाखाएं - जमवाल, मनकोटिया जसरोटिया, भाऊ, समियाल, सल्हाथिया, दलपतिये, नाराणिये, वीरपुरिया मनहास आदी है।

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