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पुराने कारोबारियों की रिवायत थी कि वे सुबह दुकान खोलते ही एक छोटी-सी कुर्सी दुकान के बाहर रख देते थे। ज्यों ही पहला ग्राहक आता, दुकानदार कुर्सी को उस जगह से उठाकर दुकान के अंदर रख देता था।
लेकिन जब दूसरा ग्राहक आता, तो दुकानदार बाज़ार पर एक नज़र डालता और यदि किसी दुकान के बाहर कुर्सी अभी भी रखी होती, तो वह ग्राहक से कहता-‘’आपकी ज़रूरत की चीज़ उस दुकान से मिलेगी। मैं सुबह का आग़ाज़ (बोहनी) कर चुका हूँ।’’
किसी कुर्सी का दुकान के बाहर रखे होने का अर्थ था कि अभी तक दुकानदार ने आग़ाज़ नही किया है।
यही वजह थी कि जिन ताजीरों (कारोबारियों) में ऐसा अख़लाक़, ऐसी मोहब्बत हुआ करती थी, उन पर बरकतों का नुज़ूल हुआ करता था।
आप पोस्ट पढ़ते वक़्त जमाने, भाषा, मुल्क या मज़हब पर न जाइएगा क्योंकि बात मूल्यों की है। बात अच्छाई की है, सीखने की है और अच्छी बात के लिए काहे का मज़हबी सवाल या मुल्क का मसला। वैसे भी हम 'जीयो और जीने दो' वाली माटी के हैं, जो पूरी दुनिया को एक परिवार मानती है।

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श्री श्याम बाबा के आज के अद्भुत मनमोहक छवि के"श्रृंगार दर्शन"❤️❤️ ....जय श्री श्याम.

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स्वर्ग में बैठे देवताओं ने रामायण का निर्माण करवाया
रामानन्द सागर की आत्मकथा में वर्णित रोमांचक घटनाएँ
सागर साहब की आत्मकथा में यह वर्णन है कि उन्हें कई बार यह अहसास हुआ कि रामायण के निर्माण में कोई दैवीय योजना है।
- उदाहरण के लिए फिल्म ललकार की शूटिंग के लिए लोकेशन तलाशने सागर साहब अपने बेटे प्रेम सागर साहब संग गुवाहाटी असम आए थे । जब वह कामाख्या स्थित सुप्रसिद्ध मन्दिर में देवी के दर्शन करने के बाद परिक्रमा कर रहे तो एक छोटी बच्ची उनके पास आई और उनसे कहा कि पेड़ के तले साधु महाराज आपको बुला रहे हैं । जब सागर साहब अपने बेटे संग उधर निकले तो प्रेम सागर ने पीछे मुड़ कर उस बच्ची को देखा कि वह किधर जाती है तो वह गायब हो चुकी थी जब सागर साहब उस पेड़ के तले आए तो वहां कई साधु एक अन्य साधु महाराज जो चबूतरे पर बैठे हुए थे उनके इर्द गिर्द बैठे हुए थे । सागर साहब ने प्रयोजन पूछा परन्तु वे शांत रहे , सागर साहब ने कोई सेवा अथवा मदद के लिए पूछा किंतु साधुओं में से किसी ने कुछ नहीं कहा तो वे विनम्रता से आज्ञा लेे कर वापस चले आए।
-वे और प्रेम सागर जी इस घटना को भूल चुके थे किन्तु सन अस्सी इक्कयासी के लगभग जब वह हिमालय में शूटिंग कर रहे थे तो अचानक मौसम खराब हो गया । पास ही एक साधु की कुटिया थी सो उन्होंने यूनिट के महिलाओं और पुरुषों के लिए शरण मांगने हेतु एक व्यक्ति को साधु महाराज के पास भेजा। लोग उनकी कुटिया में आना चाहते हैं यह सुनते ही साधु महाराज आग बबूला हो गए और उन्होंने उस व्यक्ति को चिल्ला कर बाहर निकाल दिया , किन्तु जब साधु ने उससे पूछा कि कौन डायरेक्टर है तो उन्हें उत्तर मिला रामानन्द सागर यह सुनते ही साधु के व्यवहार में परिवर्तन हुआ । वह साधु सबको स सम्मान कुटिया में लेे आया और जड़ी बूटी का काढ़ा दिया । फिर सागर साहब से गुवाहाटी की घटना के बारे में पूछा , सागर साहब आश्चर्य चकित हो गए कि इस साधु को उस घटना से क्या प्रयोजन । किन्तु साधु ने कहा कि जिस बच्ची ने उन्हें पेड़ के तले साधु महाराज के पास भेजा वह स्वयं देवी थी और वह साधु महाराज महावतार बाबाजी हैं जो किसी को दर्शन नहीं देते , सागर साहब को दर्शन इसलिए दिए क्योंकि वह आगे चलकर रामायण का निर्माण करने वाले हैं । यह घटना अस्सी इक्यासी की होगी और इसके बाद ही सागर साहब ने फिल्मों से निकल कर टीवी पर जाने की सोची।
- उदाहरण के लिए जब नवम्बर १९८६ में वी एन गाडगिल और भास्कर घोष ने रामानन्द सागर जी के बनाए पायलट एपिसोड को देख इस धारावाहिक को मंजूरी न देने का फैसला किया तो अप्रत्याशित रूप से प्रधानमंत्री ने मंत्री मंडल में फेर बदल कर दिया। वी एन गाडगिल सूचना प्रसारण मंत्रालय से हटाए गए और नए मंत्री बने अजित कुमार पांजा जो रामायण के प्रति कोई पूर्वाग्रह नहीं रखते थे फिर भी दूरदर्शन के सरकारी बाबू और क्लर्कों ने तीन महीना फायले लटकाई।
- तब सागर साहब बेहद निराश हो गए उनका नियम था कि मुंबई स्थित घर सागर विला में छत पर कबूतरों और पक्षियों को सुबह दाना डालते थे , एक दिन सुबह परेशान सागर साहब भविष्य कि अनिश्चितता में घिरे हुए छत पर खड़े हो कर पक्षियों को दाना खिला रहे थे कि एक साधु का उनके विला में आगमन हुआ , प्रेम सागर साहब इस घटना को लिखते हुए कहते हैं कि वह साधु अत्यन्त तेजस्वी दिखाई पड़ रहा था और साधुओं का दान मांगने आना सागर परिवार के लिए कोई नई बात नहीं थी मगर सागर साहब के अनुनय करने पर भी इस साधु ने कुछ दान नहीं लिया और उन्हें संबोधित कर कहा कि " मैं हिमालय स्थित अपने गुरु की आज्ञा से तुम्हे यह सूचित करने आया हूं कि व्यर्थ चिंता करना छोड़ दो , तुम रामायण नहीं बना रहे हो , स्वर्ग में बैठी दिव्य शक्तियां तुमसे यह कार्य करवा रहीं है " इतना कह कर वह साधु वहां से बिना कुछ लिए चला गया इस घटना ने सागर साहब के मन में उत्साह का संचार किया।

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हनुमान जी वानर है। वानर का अर्थ बंदर नही, बल्कि वन में रहने वाले नर को वानर कहा है।
वे शोषितों के देव है यानी शोषित कौन है ये समझना जरूरी है शोषित का अर्थ होता है जो राजा और समाज द्वारा तिरस्कृत हो, सताया गया हो। सुग्रीव, जिसे अपना राज्य छोड़कर राजा द्वारा तिरस्कार कर दिए जाने पर गुफाओं में शरण लेनी पड़ी वे वैसे शोषितों के देव है।
वे उपेक्षितों के देव है यानी उपेक्षित वो, जिसे हमारे समाज दूर-दूर तक कोई नाता नही, जो हमारे समाज से बिल्कुल कटा हुआ हो जिसे हमारे समाज ने कभी देखा ही ना हो, वो उपेक्षित है। वे उन्ही सुग्रीव जैसों के देव है यानी जो असहाय हो, निर्बल हो, सताया गया हो, तिरस्कृत हो वे वैसों के देव है।

हनुमान जी अतुलित बल के स्वामी थे वे स्वम् भी नही जानते थे कि उनके पास कितना बल है ये समझते है ..
दस हजार हाथियों में जितना बल होता है उतना बल इंद्र के ऐराबत हाथी में होता है और दस हजार ऐराबत हाथीयों में जितना बल होता है उतना बल एक इंद्र में होता है और दस हजार इन्द्रों में जितना बल होता है उतना बल हनुमान जी के हथेली की एक कनिष्ठ उंगली में थी।
इतने बल के स्वामी परंतु अभिमान तनिक भी नही, चेहरे में करुणा और आंखों में श्रीराम दर्शन के प्यास सदा झलकती रहती है।
एक छलांग में 12 योजन का विशाल समुद्र यानी एक योजन अर्थात 100 किलोमीटर तो 12×100= 1200 किलोमीटर एक छलांग में पार कर गए थे।
रावण अपने प्रिय पुत्र इंद्रजीत को हनुमान जी को बंदी बनाने के लिए कहता है। इंद्रजीत जैसा शक्तिशाली लंका में कोई दूसरा नही था वो आलौकित शक्तियों का भी स्वामी था उसके जैसा पृथ्वी पर कोई दूसरा नही था स्वम रावण भी नही था।
इन्द्रजीत अपनी समस्त शक्तियों से आघात करते हुए उन्हें बंदी बनाने का भरपूर प्रयास किया परंतु वो असफल रहा तब अपनी अंतिम शक्ति ब्रह्भास्त्र का प्रयोग किया। ब्रह्भा जी मान भंग ना हो इसलिए उन्होंने अपनी मर्जी से बंदी बनना स्वीकार किया था वरना तीनों लोकों में ऐसी कोई शक्ति नही जो उन्हें बंदी बना सकती है।
हनुमान जी के गति की भी कोई सीमा नही थी। जब भैया लक्ष्मण को शक्ति बाण लगी थी तब संजीवनी बूटी लाने हनुमान जी गए थे।
1200km समुद्र और कन्याकुमारी से हिमालय की दूरी 4000km यानी लगभग 5हजार किलोमीटर गए और रास्ते मे उन्होनें कालयवन जैसे राक्षस का भी वध किये और अयोध्या में भी घंटों भैया भरत के साथ रहने के बाबजूद उन्होंने सफलता पूर्वक बूटी सुसैन वैध तक पहुंचाई और उसी पर्वत को पुनः उसी स्थान पर वापस रख दिए और सूर्योदय होने से पहले वे वापस लंका भी आ गए। इतना कार्य उन्होंने मात्र एक रात्रि में सम्पूर्ण कर लिया था। तभी तो उनको कहा गया है- दुर्गम काज जगत के जेते, सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते।
उनका निरंतर ध्यान करने वालों को वे अष्ट सिद्धि भी प्रदान करते है इसलिए उनको एक चौपाई में- अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता कहा गया है।
जिसका विस्तार से वर्णन मैं कल के लेख में कर चुकी हूँ
आज के वैज्ञानिक एयरक्राफ्ट 2500km प्रतिघंटे की रफ्तार से चलने वाली बनाई है परंतु हनुमान जी की गति आज के एयरक्राफ्ट से भी कई गुणा अधिक तेज थे।

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बताया जा रहा है कि महाराष्ट्र के अकोला जिले के किसी कोथली नामक स्थान में हनुमान जन्मोत्सव के अवसर पर बानरों का भोज कराया गया। बंदर जैसी उछल कूद करते रहने वाली प्रजाति को इस तरह पंक्तिबद्ध हो बैठ कर भोजन करते देखना भी कम आश्चर्यजनक नहीं।

सोच रहा हूँ, इन बंदरो में स्वयं के लिए भरोसा पैदा करना कितना कठिन रहा होगा। कितना कठिन तप करना पड़ा होगा... सामान्य जन मनुष्यों को नहीं साध पाते, कुछ लोग पशुओं को भी साध लेते हैं। भगवा लपेटे खड़े उस साधु के लिए मन में यूँ ही श्रद्धा का भाव उपज रहा है। उनकी साधना, उनका तप नमन के योग्य है।

सुखद यह भी है कि बंदर और मानुष एक ही पंक्ति में बैठ कर भोजन कर रहे हैं। समानता-असमानता के निरंतर चलते द्वंद और विमर्शों के बीच मानुष का बानरों की पंक्ति में बैठ कर भोजन करना मन मोह रहा है। है न सुन्दर? संसार के इस सबसे प्राचीन देश के प्रति अत्यधिक श्रद्धा होने का एक कारण यह भी है कि तमाम नकारात्मक खबरों के बीच कहीं न कहीं से कोई ऐसी तस्वीर आ जाती है कि देख कर मन झूम उठता है।

अपनी समस्याओं का हल निकाल लेने की शक्ति सबसे अधिक मनुष्य में है, फिर भी वह अपने अंदर की पशुता को नहीं मार पाता। ईर्ष्या, घृणा, डाह... हम किसी से स्वयं की रक्षा नहीं कर पाते। पशुओं के पास स्वयं का सुधार कर सकने की क्षमता मनुष्य से बहुत कम है, फिर भी वे बड़ी सहजता से मानवता सीख लेते हैं। कितना अद्भुत है न? काश! कि हम कुछ सीखते...

हमारे गांवों में अब भी कोई बंदरों को परेशान नहीं करता। उन्हें अधिक से अधिक भगाया जाता है, मारा नहीं जाता। एक सहज गृहस्थ को अब भी उनमें हनुमान जी महाराज दिखते हैं। यह तस्वीर उसी ग्रामीण भाव की उच्चतम अभिव्यक्ति है। इस देश में अब भी बहुत कुछ बदला नहीं है।

पशुओं में भी ईश्वर को देख लेने का पवित्र भाव कुछ हजार वर्ष पूर्व तक समस्त संसार में था, पर अब केवल और केवल भारत में बचा है। पश्चिमी अभद्रता के संक्रमण में फँस रहा भारत यदि इस भाव को भी बचा ले तो स्वयं को सबसे अलग, सबसे पवित्र बनाये रख लेगा। इक्कीसवीं सदी में वही उसकी विजय होगी।

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