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दिसंबर महीना है जब लाल सिर बत्तख हजारों किमी दूर यूरेशिया के ठंडे इलाकों से पर्वतों को लांघते हुए भारत की सरजमीं में दाखिल होते हैं। इसीलिए अपने कैलेंडर में मैंने इनके लिए दिसंबर का महीना चुना😊
इस बार भी वो दो हफ्तों से हमारे शहर रांची में अपने आशियाने पर आ चुके हैं पर इस बार ज्यादातर तट को छोड़कर जलाशय के अंदरूनी भाग में सैर कर रहे हैं।
जैसे जैसे साल खिसक रहे हैं मैं देख रहा हूं कि रांची की हरी भरी जगहें सिकुड़ती जा रही हैं। पक्षी भी वहीं बड़ी संख्या में आते हैं जहां वे पूरी निजता और सुकून के साथ अपने दैनिक क्रियाकलाप पूर्ण कर सकें। अब आप ही बताइए भीड़ भाड़ वाली जगह में कौन छुट्टियां मनाने जाता है और ये तो हजारों किमी की यात्रा कर यहां तफ़रीह करने आए हैं।
बचपन में रामचरितमानस से पहला परिचय नानी ने करवाया था। जिस कमरे में वो रहती थीं वो दिन भर एक ड्राइंग रूम का भी काम करता था। ले दे के उसमें एक लकड़ी की चौकी थी। चौकी से ज्यादा हम उसके सफेद काली टाइल से सुसज्जित फर्श पर ही बैठते, सोते और नाश्ता करते थे।
कमरे के एक कोने में एक छोटी सी खुली अलमारी थी जिसके नीचे की पटिया पर रामचरितमानस की एक प्रति रखी हुई थी। नानी हर सुबह उठकर उसके किसी न किसी अध्याय का पाठ किया करती थीं। हम बच्चे भी कभी कभी उनके आस पास बैठ जाया करते थे। राम रावण की कथा तो तब थोड़ी बहुत पता ही थी पर कुछ प्रसंग नानी की संगति में हमें भी पता चल जाते थे। पर कथा से ज्यादा मेरा ध्यान उसके बाद मिलने वाले मीठे मुनके पर ही ज्यादा रहा करता था।
दशहरे में जब भी हम कानपुर जाते, नानी अपने साथ हमें रामलीला दिखाने के लिए तत्पर रहतीं। उनके साथ कानपुर की सड़कों पर सिया, राम और लक्ष्मण की झांकी हम खुशी खुशी देखते। राम और उनकी कथा उनके मन मस्तिष्क में रच बस गई थी। उन जैसे कम पढ़े लिखे लोगों के लिए वो पुस्तक जीवन का महाकाव्य थी और उसके नायक सबसे ज्यादा आराध्य। नानी की हमेशा से इच्छा थी कि राम का भव्य मंदिर बनें। नब्बे के दशक में मंदिर के लिए ईंट जोड़ने के लिए अपनी हमउम्र सखियों सहेलियों के साथ उन्होंने भी अपना योगदान किया। मुझे लगता है कि न केवल मेरी नानी बल्कि उनकी पीढ़ी के अधिकांश लोगों ने बड़ी शिद्दत से इस मंदिर का सपना देखा होगा।
आज जब टीवी पर रामलला की मुस्कुराती छवि दिखाई दे रही थी तो मुझे उसके पीछे नानी की आंखों का संतोष दिखाई दे रहा था। जो वो जीते जी नहीं देख पाई वो आज इतने सालों बाद फलीभूत हुआ है। नानी के साथ मेरी ज्यादा तस्वीर नहीं हैं। बस एक बड़ी मुश्किल से मिली जिसमें उनकी आंखें बंद हो गई हैं। मुझे विश्वास है कि नानी जहां कहीं भी होंगी वो रामलला के इस मुदित चेहरे को देख आनंदित हो रही होंगी।
वायनाड की वो सुबह बादलों की वज़ह से निस्तेज सी थी। खिड़की से बाहर का नज़ारा देख के बुझे मन से में अपना कैमरा लेकर बाहर निकल पड़ा था।
पक्षी निहारने व उनकी तस्वीर लेने वाले हमेशा खुले आसमान और सुनहरी धूप का सपना देखकर ही सुबह सुबह अपनी पलकें खोलते हैं। पर भगवन इतने दयालु भी नहीं कि हर बार उनके स्वप्न को साकार ही कर दें।
मुझे भृंगराज (Greater Racket Tailed Drongo) की तलाश थी। पिछली शाम को ही मैंने उसे सुपारी के जंगलों से पास की एक झील की ओर जाते देखा था। भृंगराज से अगर आपकी मुलाकात अब तक न हुई हो तो इतना समझ लें कि ये हमारे घर के आस पास रहने वाले काले कोतवाल या भुजंगा (Black Drongo) का ही सहोदर है।
सुपारी वन के बीच अभी भी अंधेरा पसरा हुआ था पर उनसे भांति भांति की आवाज़ें आ रही थीं। उनमें से एक आवाज़ भृंगराज की भी थी। पर आप इसे आवाज़ से इतनी आसानी से नहीं पहचान सकते क्योंकि ये पक्षी अपने आस पास के पक्षियों की नकल उतारने में माहिर है। समझ लीजिए कि ये पक्षियों का सोनू निगम है😁।
इसके एक बार उड़ने की देर थी कि ये पहचान में आ गया। कम रोशनी में इसके काले नीले शरीर की छाया आकृति (silhouette) ही आ सकी पर वो silhouette इसकी पहचान के लिए काफी था।
इसके रूप की दो विशेषताएं इसे अपनी प्रजाति के बाकी पक्षियों से अलग करती हैं। एक तो इसकी लटकती हुई लंबी पूंछ जिसके दोनों ओर लहराते सिरे इसकी उड़ान को अनूठा बनाते हैं तो दूसरी ओर इसके सिर से निकलते घुमावदार बालों का गुच्छा जो एक कलगी की तरह दिखाई देता है।
बालों के इसी गुच्छे की वज़ह से इसका नाम भृंगराज पड़ा है।भृंगराज एक ऐसी बूटी है जो बालों के विकास के लिए बेहद उपयोगी मानी जाती है। वैसे भारत के अलग अलग इलाकों में इसे भांगराज और भीमराज के नाम से भी बुलाया जाता है पर वो नाम कम प्रचलित हैं। भृंगराज की एक खूबी ये भी है कि आवाज़ की नकल कर ये अपने संगी पक्षियों के समूह में घुलमिल जाता है और भोजन की साझा खोज में हिस्सा लेता है।
हिमालय से लेकर दक्षिणी प्रायद्वीप के जंगलों में आप इससे मुलाकात जरूर कर पाएंगे। दुधवा और पेंच अभ्यारण्य के बाद केरल के वायनाड में मेरी इससे ये तीसरी मुलाकात थी। आशा है अगली बार किसी चमकती सुबह में इसके दर्शन हो पाएंगे।
आज विश्व तितली दिवस है। इन नन्हे से रंग बिरंगे पंखों वाले जीव से भला किसको प्यार नहीं होगा? पर इस प्रेम के बावजूद क्या हम अपने आस पास की तितलियों के बारे में जानते या उनको पहचानते हैं?
तितलियों से जान पहचान करने का मेरा शगल कोविड काल के दौरान बढ़ा। उसका एक कारण ये भी था कि उस वक्त मोहल्ले में अक्सर नई तितलियां दिखाई दे रही थीं। तभी तितलियों में रुचि रखने वालों का एक समूह बनाया और उसमें सब लोगों ने अपने आस पास दिखने वाली तितलियों की तस्वीरें डालनी शुरू कर दीं। देखते देखते हम सब ने मिलकर करीब कुछ ही दिनों में झारखंड की सत्तर अस्सी तितलियों के बारे में जान लिया।
उसके एक दो साल पहले तक हम लोग फेसबुक पर सामूहिक रूप से पक्षियों को हिन्दी नाम देने की कवायद शुरू कर चुके थे। मुझे लगा कि क्यों ना इसी तरह तितलियों को भी हिन्दी नाम दिए जाएं। पर व्यक्तिगत रूप से की गई वो कोशिश घर के आस पास की तितलियों को कवर करने के बाद से रुक गई। पर अगर मन में कुछ करने की इच्छा हो तो आपको सही लोगों से उचित समय पर देर सबेर मिला ही देती है।
इंटरनेट के ही जरिए मेरी मुलाकात एक समूह से हुई जो राष्ट्रीय स्तर पर तितलियों के अंग्रेज़ी नामों को भारतीय भाषाओं में तब्दील कर रहा था। सब लोगों की पृष्ठभूमि अलग अलग थी पर एक था तो वो अपनी प्रकृति और जैव विविधता के लिए प्रेम। अपनी अपनी व्यस्त दिनचर्या से समय निकाल कर हम सबने पिछले छह महीनों में हिंदी भाषी प्रदेशों में दिखने वाली तितलियों को उनके रंग रूप, आचार व्यवहार और आश्रय देने वाले पौधों के आधार पर नाम देने का सिलसिला शुरू कर दिया। दरअसल भारत में पाई जाने वाली तितलियों में अधिकांश के नाम ब्रिटिश सेना या ऐसे लोगों ने दिए जो यहां की संस्कृति से जुड़े नहीं थे । कुछ तो तार्किक थे पर कई ऐसे जिनका उस तितली की प्रकृति से कोई लेना देना नहीं था। कई शब्द तो सेना के ओहदे से जुड़े हुए थे मसलन Commander, Baronet, Lascar, कुछ जिनके तार विदेशी नामों से लिए गए जैसे Jezebel, Pierrot जिनका भारत से दूर दूर तक कोई संबंध ना था। इसीलिए इन नामों को भारतीय सांचे में ढालने की सख़्त ज़रूरत थी ताकि आम जन अपने आप को उस नाम से जोड़ सकें, उसे बोलते हुए एक अपनापन महसूस कर सकें। अब जब आप बहुरूपिया, आम्रपाली, चतुरंगी, तिकोनी, सांझ भूरी, तेजस, अंगद जैसे नाम सुनेंगे तो आपको उन तितलियों के बारे में कुछ तो अंदाज़ा हो जाएगा।
आज विश्व तितली दिवस के अवसर पर हमारे इस सम्मिलित प्रयास के पहले चरण में ज्यादा दिखने वाली 221 तितलियों का नामकरण हुआ है और इसी के साथ मेरे लिए खुशी की बात है कि मेरा तितलियों को हिन्दी नाम देना का एक सपना मूर्त रूप ले चुका है😊। इसी मुहिम से जुड़ा आलेख आज के दैनिक भास्कर में