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हे धर्मात्मा भरत !
तुम्हारा प्रेम इतना महान है। कि उसके सामने सभी वचन छोटे है।
लेकिन पिताजी कि आज्ञा धर्म है वत्स।
मनुष्य को किसी भी परिस्थिति में धर्म का त्याग नही करना चाहिये।
अब तुम ही निर्णय करो। मैं वन में रहूँ या अयोध्या चलूं ।

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तीन दिन तक मैं इसके सामने विनय, याचना कर रहा हूँ। यह सठ अपने अभिमान में इतना चूर है। कि सुन ही नही रहा है।
मेरे बाणों से तुम्हारी रक्षा इस ब्रह्मांड में कोई नही कर सकता है।
राजराजेश्वर मर्यादापुरुषोत्तम भगवान राम अपनी प्रत्यंचा पर बाण चढ़ा लिये।
वह कभी क्रोध नही करते। कहते है, उनको दो ही बार क्रोध आया था।
युद्ध के पहले ही दिन एक बार जब रावण ने सुग्रीव को बंदी बना लिया था।
दूसरी बार जब समुद्र ने उनका विनय नही सुना।

मर्यादापुरुषोत्तम भगवान जो भी कर रहे हैं। वह हमारे लिये जीवन मूल्य है! होना भी चाहिये।
क्रोध दो परिस्थितियों में ठीक है।
एक जब आपके सरंक्षण में कोई हो। उसका जीवन असुरक्षित हो जाय।
दूसरा तब जब आप सक्षम हो। याचना, विनय दूसरा सुनने को तैयार न हो।
भगवान ने जैसे ही धनुष संधान किया। समस्त लोको में हाहाकार मच गया।
समुद्र त्राहिमाम त्राहिमाम प्रभो। कहते हुये उनके चरणों मे गिर पड़ा।

दशहरा कि आप सभी को शुभकामनाएं।

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ऐसा लगता है।
सागौन के लिये यहां कि जलवायु बहुत अनुकूल है।
बाग के किनारे दो सौ पेड़ लगाया गया था। बहुत तेजी से बढ़ रहे है।

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