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#इतिहास में 99 % #क्षत्रिय आम सैनिक और किसान रहे हैं। पुराने जमाने मे क्षत्रिय परिवार अपने वंश/कुल/भाईबंध के जागीरदार/ठिकानेदार/तालुकेदार के आश्रित होते थे। जागीरदार आदि ही जमीन के मालिक होते थे और बाकी राजपूत इनके आश्रय पर जीते थे और जरूरत पड़ने पर इनके लिये युद्ध में शामिल होना उनके लिये अनिवार्य होता था। कुछ लोग सुदूर प्रान्तों में जाकर सैन्य सेवा देकर अपना भाग्य आजमाते थे।
साफ है कि ये 99% क्षत्रिय आलीशान महलो में नही रहते थे और ना ही विलासिता की जिंदगी जी सकते थे। उनको अपनी रोजी रोटी के जुगाड़ के लिये सिर्फ अपना पसीना नही बल्कि अपना खून बहाना पड़ता था और दूरस्थ विषम भूगौलिक परिस्थितियों में भी लड़ने जाना होता था। इस तरह वो अन्य जातियो जिन्हें आज पिछड़ा में गिना जाता है और जो अपने गांव बैठे खेती कर जीवनयापन करती थी, उनसे ज्यादा विषम परिस्थियों में जीते थे।
अंग्रेजो के भारत के भाग्य विधाता बनने के बाद जब देश मे राजनीतिक ऐक्य स्थापिय हो गया और राजाओ और जमींदारों की स्थायी और अस्थायी सेनाओं की कोई उपयोगिता नही रह गई और उन्हें dismantle कर दिया गया तो इन राजपूत सैनिकों को खेती करने के लिये विवश होना पड़ा। राजपूत जमींदारो/तालुकेदारों ने इन्हें खेती के लिये जमीने दी। इस समय 95% राजपूत अन्य कृषक जातियो की तरह किसान थे।
अंग्रेजो से कांग्रेस के पक्ष में सत्ता हस्तांतरण के बाद जमींदारी एक्ट लागू कर बड़े जमींदारों को समाप्त कर दिया गया जो कि राजपूतो के सम्पन्न और ताकतवर जाती माने जाने का एकमात्र कारण था। अब राजपूतो के पास ना तो राज थे, ना ही जमीनदारी, ना बनियो की तरह पैसा और ना ही ब्राह्मणों की तरह शिक्षित और नौकरीपेशा थे। इस दौर में राजपूत राजनीति में भी बहुत पिछड़े थे। ऐसे में राजपूतो की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक हैसियत किसी भी अन्य कृषक जाती के बराबर थी।
इसके अलावा कई क्षेत्र ऐसे थे जहां 47 तक भी आम राजपूत जागीरदारों/ठिकानेदारों की सेवा में थे और उनपर निर्भर थे। जब जमींदारी उन्मूलन हुआ तो वहां आम राजपूतो के हिस्से कुछ नही आया और वो उन कृषक जातियो से भी पिछड़ गए जो इन जमींदारों की जमीनों पर पहले से खेती करते थे।
तथाकथित आजाद भारत मे राजपूतो के पास ना राज छोड़ा और ना जमीने छोड़ी, नौकरी और व्यापार में तो थे ही नही, तो फिर किस आधार पर अन्य कृषक जातियो को तो पिछड़ा बताकर आरक्षण दिया जाता है लेकिन राजपूतो को फारवर्ड बोलकर उन्हें इससे वंचित किया जाता है?
अगर राजपूतो को इस वजह से आरक्षण से वंचित किया जाता है कि वो राजा और जमींदार थे तो उनके राज नही तो कम से कम उनकी जमीदारिया तो वापिस करो या फिर उनका मुआवजा देते। ये राज और जमीने अपना खून बहाकर पुरुषार्थ के बल हासिल करी थी, किसी खैरात में नही। इन्हें लोकतंत्र में समानता का वादा कर मुफ्त में ले लिया गया और राजपूतो ने भी लोकतंत्र और समानता के लिये बिना विरोध किये इन्हें दे दिया। हालांकि बनियो की संपत्ति को सरकार ने हाथ नही लगाया। लेकिन क्या हुआ उस समानता का? समानता लाने की बात की लेकिन आरक्षण की व्यवस्था कर असमानता और अत्याचार को बढ़ावा दिया। और अगर शैक्षिक,नौकरियों और आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था कर भी दी तो जिस राजपूत जाती से राज और जमीने छीन कर उसे गरीब और कमजोर कर दिया गया था उसे फारवर्ड बता कर आरक्षण से वंचित क्यों किया गया? पहले राज और जमीने छीनकर और फिर आरक्षण से भी वंचित कर अन्य प्रतिद्वंदी जातियो को राजपूतो से आगे बढ़ाने का षड्यंत्र क्यों किया? जब राज और जमीने ले ली तो फिर किस बात के फारवर्ड और संपन्न? या तो राज और जमीने वापिस देते या आरक्षण।
राजपूत राजा थे, जमींदार थे, सैनिक थे और किसान थे। राजा और जमींदार रहे नही और सेना में क्षेत्र आधारित कोटा होने और अधिकतर रेजिमेंट में जाति वर्ग आधारित आरक्षण होने के कारण एक हद से ज्यादा राजपूत भर्ती नही हो सकते। पुलिस और अर्धसैनिक बलों में आरक्षण है ही। इसलिये आज बहुसंख्यक राजपूत किसान ही हैं। भारत की सरकार से राजपूतो की यह मांग होनी चाहिये कि अगर राजपूतो को उनका राज और जमींदारी वापिस नही दे सकती तो या तो कृषक जाती होने और शैक्षणिक पिछड़ेपन के आधार पर उन्हें नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में पिछड़ा के अंतर्गत आरक्षण दे या फिर सेना और अर्धसैनिक बलों में कोटा खत्म कर राजपूतो को सैन्य बलों में कम से कम 80% प्रतिशत आरक्षण दे। देश के लिये पहले भी राजपूत मरते मिटते आए हैं और अब भी करोड़ों अकेले लड़ने मरने को तैयार हैं, बाकी जातियां सैन्य बलों में भर्ती होने की ज्यादा टेंशन ना लें और खा पीकर मौज करें। 😉😊
"राजमाता नायिका देवी पाटन" *क्षत्राणी
"चालुक्य (सोलंकी) राजपूतो का पराक्रम"
*राजमाता नायिका देवी जिसने साबुद्दीन मोहम्मद गोरी को भारत में पहली पराजय का रास्ता दिखाया युद्धभूमि में धूल चटा दी थी।
*राजमाता नायिका देवी ने मोहम्मद गौरी की विजय के उपलक्ष में रण हस्ति सिक्के जारी किए थे..
*राजमाता नायिका देवी पाटन की सेना के सेनापति सोलंकी भीमदेव द्वितीय थे जिन्होंने अपने पराक्रम से गोरी के सेना का भागने में मजबूर कर दिया
*युद्ध में पाटन के सामंत राजाओं ने भी भाग लिया जिसमें आबू के परमार वे नाडोल के चौहानों का भी योगदान रहा..
*महारानी नायिका देवी सम्राट अजयपाल सोलंकी की विधवा महारानी व बाल मूलराज जी द्वित्तीय की माता थी नायिका देवी जी
*महाराज अजयपाल जी के निधन के बाद सारा राजपाट का भार राजमाता नायका देवी के कंधों पर आ गया,
*उनके पुत्र बाल मूलराज अभी बाल अवस्था में थे
*मुहम्मद गोरी का पहला आक्रमण मुल्तान और उच के किले पर था। मुल्तान और उच पर कब्जा करने के बाद, वह दक्षिण की ओर दक्षिणी राजपुताना और गुजरात की ओर मुड़ गया। उसका निशाना अनहिलवाड़ा पाटन का समृद्ध किला था
*जब गोरी ने पाटन पर हमला किया, तो यह मूलराज-द्वितीय के शासन में था, जो अपने पिता अजयपाल के निधन के बाद एक 10 वर्षीय उमर में सिंहासन पर चढ़े थे। हालांकि, यह वास्तव में उनकी मां, नयिकी देवी थी, जिन्होंने राजमाता के रूप में राज्य की बागडोर संभाली थी। दिलचस्प बात यह है कि इस तथ्य ने गोरी को अन्हिलवाड़ा पाटन पर कब्जा करने के बारे में आश्वस्त कर दिया था –
* उन्होंने माना कि एक महिला और एक बच्चा बहुत अधिक प्रतिरोध प्रदान नहीं करेगा। पर गोरी जल्द ही सत्य सीख जाएगा
*राजमाता नायकि देवी तलवार चलाने, घुड़सवार सेना, सैन्य रणनीति, कूटनीति और राज्य के अन्य सभी विषयों में अच्छी तरह से प्रशिक्षित थी। गौरी के आसन्न हमले की संभावना से दुखी होकर, उसने चालुक्य सेना की कमान संभाली और आक्रमणकारी सेना के लिए एकसुनियोजित विरोध का आयोजन किया।
*चालुक्य सेना संख्याबल में कम होने के कारण दुश्मन सैनिकों की भारी भीड़ को हराने के लिए पर्याप्त नहीं थी, राजमाता नायिकी देवी ने सावधानीपूर्वक एक युद्ध की रणनीति बनाई। उसने गदरघाट के बीहड़ इलाके को चुना – कसाहरदा गाँव के पास माउंट आबू के एक इलाके में (आधुनिक-सिरोही जिले में) – लड़ाई के स्थल के रूप में। गदरघाट की संकरी पहाड़ी दर्रा ग़ोरी की हमलावर सेना के लिए अपरिचित ज़मीन थी, जिससे नायकी देवी को बहुत बड़ा फायदा हुआ।
*और एक शानदार चाल ने युद्ध को संतुलित कर दिया। और इसलिए जब गौरी और उसकी सेना आखिर कसरावदा पहुंची, राजमाता नायिका देवी एक विशाल गजराज पर अपने पुत्र के साथ में सवार थी ई, जिससे उसके सैनिकों ने भीषण जवाबी हमला किया।
*इसके बाद क्या था उस लड़ाई में, जिसे (कसारदा की लड़ाई के रूप में जाना जाता है), आगे चलकर चालुक्य सेना और उसके युद्ध के हाथियों की टुकड़ी ने हमलावर ताकत को कुचल दिया। यह वही गोरी की सेना थी जिसने एक बार मुल्तान के शक्तिशाली सुल्तानों को युद्ध में हराया था।
*एक अपनी पहली हार बड़ी हार का सामना करते हुए, शहाबुद्दीन मोहम्मद गौरी मुट्ठी भर अंगरक्षकों के साथ भाग गया। उसका अभिमान चकनाचूर हो गया, और उसने फिर कभी गुजरात को जीतने की कोशिश नहीं की। इसके बजाय, उसने अगले साल खैबर दर्रे के माध्यम से उत्तर भारत में प्रवेश करने वाले अधिक संवेदनशील पंजाब की ओर देखा।
*भारत के इतिहास की सबसे महान योद्धाओं में से महिलाओं में से एक, राजमाता नायिका देवी की अदम्य साहस और अदम्य भावना झांसी की पौराणिक रानी लक्ष्मी बाई, मराठों की रानी ताराबाई और कित्तूर की रानी चेन्नम्मा के बराबर हैं। फिर भी, इतिहास की किताबों में उसकी अविश्वसनीय कहानी के बारे में बहुत कम लिखा गया है।
तस्वीर में दिखाई दे रहे विंध्य में अंग्रेजों के खिलाफ क्रांति के सूत्रधार, रीवा के मनकहरी गांव के महान क्रांतिकारी ठाकुर रणमत सिंह बघेल हैं।
उन्होंने पहला युद्ध नागौद के पास भेलसांय में अंग्रेजों से लड़ा और जीत हासिल की। इसके बाद नयागांव में अंग्रेजों की छावनी में हमला बोला था। चित्रकूट हनुमान धारा में साधु-संतों के साथ मिलकर भी उन्होंने अंग्रेजों से युद्ध लड़ा। इसमें कई साधु-संतों वीरगति का प्राप्त हुए थे। ठाकुर रणमत सिंह गंभीर रूप से घायल हुए, लेकिन अंग्रेजों के हाथ नहीं आए।
1857 के संग्राम के दौरान अंग्रेजों को खदेड़ने की घटनाएँ केवल दिल्ली, मेरठ या कानपुर के आसपास ही घटित नहीं हुई थीं, बल्कि मध्यप्रदेश के बघेलखण्ड़ में सुदूर क्षेत्र में भी कई राजघराने व आम लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दी थी। ऐसे कई क्रांतिकारियों के नाम इतिहास के पन्नों में उतने चर्चित नहीं हुए, जितना उनका योगदान था। जिन्होंने अंग्रेजी सरकार को भारत से खदेड़ने और स्वाधीनता के लिये संघर्ष किया है। 1857 स्वतंत्रता संग्राम में मध्यप्रदेश के सतना जिले के मनकहरी ग्राम निवासी ठाकुर रणमत सिंह ने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए थे। वे महाराजा रघुराज सिंह के समकालीन थे। रघुराज इन्हें काकू कहा करते थे। रणमत सिंह को रीवा की सेना में सरदार का स्थान मिला था। ठाकुर रणमत सिंह रीवा और पन्ना के बीच का क्षेत्र बुंदेलों से मुक्त कराने में उभरकर सामने आए।
मई, 1858 में रणमत सिंह, फरजंदअली सहित झाँसी की रानी की सहायता करने हेतु तीन सौ साथियों सहित कालपी के युद्ध में उपस्थित थे। वह तीन-चार दिन ठहरे। लेकिन झाँसी की रानी की पराजय हुई। रानी को ग्वालियर की ओर पलायन करना पड़ा और रणमत सिंह बुन्देलखण्ड लौट लौट आये।
स्वतंत्रता सेनानी बन जाने पर रणमत सिंह अपना दल गठित किये, जिसमें छह-सात सौ साथी थे। उनके दल की शक्ति लगातार बढ़ने लगी। फौज़ में अजायब सिंह, बिहारी सिंह, जगरूप सिंह, आरंग सिंह एवं कोठी रियासत के ही करीब दो सौ आदमी थे। इनके अतिरिक्त आसपास से भी कई सरदार तथा अन्य व्यक्ति रणमत सिंह की फौज में शामिल हुए। ब्रिटिश सरकार उनसे आतंकित होने लगी।उन्हें क्रांतिकारी घोषित कर दिया। पकड़ने के लिए दो हजार रुपये इनाम की घोषणा की गई। रणमत के साथ रीवा रियासत के सरदारों में पंजाब सिंह, धीर सिंह एवं श्याम सिंह प्रमुख थे। कोठी रयासत के ही दल्ला गौंड, इन्दुल व्यास, भरत सिंह आदि भी अपने साथियों सहित आ मिले, जिनमें दोसे खाँ, रघुवीर, कासीनाथ, पहलवान खाँ व्यापारी, आरेंग रासी भी थे। नागौद के परमानंद बानिया, कुरबान अली, माधौगढ़ थाना के रामनाथ, मौजा नासे (माधौगढ़) का प्रणी, हाली (माधौगढ़) का काली सिंह, हटा (माधौगढ़) का मान सिंह राजपूत, (माधौगढ़) खास का सरबजीत सिंह, हरद्वोर, हल्दोर (माधौगढ़) का अधैत सिंह, मनकहरी के महाबत सिंह तथा भागदा भी रणमत सिंह के दल के सदस्य थे।