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अक्सर गाँव और छोटे कस्बों में बेटियों की पढ़ाई बीच में ही रोक दी जाती है ताकि जल्दी शादी कर दी जाए। लेकिन इस माँ ने परंपराओं के दबाव को तोड़ते हुए अपनी चारों बेटियों के लिए नया रास्ता चुना।

उन्होंने शादी के खर्च और दहेज के बोझ को दरकिनार कर बेटियों की शिक्षा में निवेश किया। स्कूल और कॉलेज की फीस भरने के लिए उन्होंने खेतों में काम किया, दूसरों के घरों में मेहनत की और कई बार अपनी बुनियादी ज़रूरतों का त्याग किया।

समाज से ताने भी मिले—"इतना पढ़ा-लिखा कर क्या करना है, आखिर शादी ही तो करनी है।" लेकिन माँ का जवाब साफ था—"मेरी बेटियाँ पहले नौकरी करेंगी, अपने पैरों पर खड़ी होंगी।"

परिणाम यह हुआ कि चारों बहनों ने माँ के संघर्ष को सार्थक करते हुए मेहनत की और आज सभी सरकारी नौकरी में हैं। यह उपलब्धि सिर्फ उनकी व्यक्तिगत जीत नहीं, बल्कि उस सोच की जीत है जो मानती है कि बेटियों को बराबरी का अवसर देना ही सही मायने में उनका भविष्य सुरक्षित करना है।

सरकारी नौकरी के ज़रिए बेटियाँ न सिर्फ आत्मनिर्भर बनीं, बल्कि अपने परिवार की आर्थिक स्थिति भी मजबूत कर पाईं।

अब वे अपनी माँ के संघर्ष का सम्मान करते हुए समाज में उन बेटियों के लिए प्रेरणा बन गई हैं जिन्हें अक्सर शादी के नाम पर अपने सपनों से समझौता करना पड़ता है।

यह इस बात का प्रमाण है कि जब शिक्षा और रोज़गार को प्राथमिकता दी जाती है, तो बेटियाँ परिवार और समाज दोनों का नाम रोशन कर सकती हैं।

माँ और बेटियों की यह यात्रा हमें यह सिखाती है कि बदलाव घर से ही शुरू होता है—जहाँ शादी से पहले आत्मनिर्भरता और शिक्षा को महत्व दिया जाए।

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28 साल के मोहम्मद बासित, जिनकी परवरिश एक अकेली माँ ने की, आज गरीबों और जरूरतमंदों के लिए उम्मीद और सम्मान की किरण बने हुए हैं।

अपनी माँ के अथक संघर्ष और देखभाल को सम्मान देने के लिए उन्होंने अपनी एम्बुलेंस सेवा का नाम रखा – “अन्नई एम्बुलेंस”।

दो साल पहले तमिलनाडु के राजापालयम स्तिथ एक अस्पताल में नवजात शिशु की रोने की आवाज़ के बीच उस बच्चे की माँ का शव पड़ा था।

परिवार के पास शव को घर ले जाने का कोई साधन नहीं था। बासित ने बिना किसी शुल्क के शव को 15 किलोमीटर दूर घर तक पहुँचाया, सम्मान और सहानुभूति के साथ अंतिम यात्रा सुनिश्चित की।

सिर्फ एम्बुलेंस सेवा ही नहीं, बासित बेसहारा और मानसिक रूप से बीमार लोगों को आश्रय गृह तक पहुँचाने, सरकारी अस्पतालों में मदद करने और कोविड-19 महामारी के दौरान सड़क पर लावारिस लोगों का अंतिम संस्कार करने तक की जिम्मेदारी उठाते हैं।

उनकी पत्नी, नर्स अनिशा फातिमा, भी उनके साथ हैं और जरूरतमंदों को मुफ्त प्राथमिक चिकित्सा और आपातकालीन मदद देती हैं।

बासित आगे और एम्बुलेंस जोड़ने और वंचित बुज़ुर्गों के लिए आश्रय गृह शुरू करने का सपना देखते हैं। उनकी सेवा साबित करती है कि एक छोटा सा दया का कार्य भी समाज में उम्मीद की लहर पैदा कर सकता है।

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ओडिशा के कालाहांडी ज़िले के नुआपाड़ा गाँव से निकली आदिवासी युवती बिदु नायक की कहानी हौसले और संघर्ष की मिसाल है।

21 साल की बिदु के माता-पिता नरेंद्र नायक और प्रेमसिला नायक खेतों में मज़दूरी कर परिवार चलाते हैं। बचपन से ही बिदु ने अपने माँ-बाप के साथ खेतों में काम किया, लेकिन पढ़ाई को कभी नहीं छोड़ा।

गाँव के ही प्राथमिक विद्यालय से शिक्षा की शुरुआत की और आगे कण्याश्रम, दुलमिबांध से हाईस्कूल पूरा किया।

इसके बाद उन्होंने लांजीगढ़ के ST/SC हायर सेकेंडरी स्कूल से +2 की पढ़ाई की और साल 2024 में पूरे ब्लॉक की टॉपर बनीं। लेकिन आर्थिक तंगी इतनी गहरी थी कि आगे की पढ़ाई लगभग असंभव लग रही थी। मजबूरी में वो गाँव लौटीं और स्थानीय बच्चों को पढ़ाने लगीं, साथ ही खेतों में काम भी करती रहीं।

इसी बीच उनकी काबिलियत को पहचानकर उनकी रिश्तेदार लवण्या पुज्हारी ने मदद का हाथ बढ़ाया और उन्हें भुवनेश्वर भेजा ताकि वो NEET की तैयारी कर सकें। कड़ी मेहनत और परिवार के साथ के दम पर बिदु ने परीक्षा पास की और अब उन्होंने MKCG मेडिकल कॉलेज, ब्रह्मपुर में दाख़िला ले लिया है।

आज जब वो डॉक्टर बनने के सपने की ओर बढ़ रही हैं, पूरा इलाका उनकी कामयाबी पर गर्व महसूस कर रहा है। बिदु नायक ने यह दिखा दिया है कि हालात कितने भी कठिन क्यों न हों, अगर इरादा मजबूत हो तो सपनों तक पहुँचना नामुमकिन नहीं।

#inspiration #neetsuccess #kalahandi #motivation

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राजपाल गुलाब चंद कटारिया ने पंजाब रेड क्रॉस सोसाइटी द्वारा 9 लाख रुपये की लागत से खरीदी 50 फॉगिंग मशीनों को हरी झंडी दिखाई।
बाढ़ प्रभावित जिलों में बीमारियों को फैलने से रोकने के लिए भेजी गई मशीनें

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