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पंकज श्रीवास्तव / ‘मुग़लों’ पर बोस और शिवाजी ने जो लिखा, वो संघ पढ़े तो आँख खुले
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देश में इस समय इतिहास को बदलने, इतिहास का पुनर्लेखन करने और खासकर मुगल सल्तनत के दौर को टारगेट करने की धूम मची हुई है। आरएसएस और भाजपा के पास सत्ता है और उन्होंने अपने मकसद को पूरा कर दिखाया है। लेकिन पत्रकार पंकज श्रीवास्तव ने सत्य हिन्दी पर लिखा है कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस और छत्रपति शिवाजी की जो राय मुगल शासनकाल के बारे में रही है संघी और भाजपाई उसे कैसे झुठला सकते हैं।
आज़ाद हिंद फ़ौज के शीर्ष कमांडर बतौर नेताजी सुभाषचंद्र बोस 26 सितंबर 1943 को रंगून पहुँचे और वहाँ उन्होंने अंतिम मुग़ल सम्राट बहादुरशाह ज़फ़र के मज़ार पर सजदा किया। यही नहीं, मज़ार पर 50 हज़ार रुपये बतौर नज़राना भी चढ़ाया। नेताजी की नज़र में बहादुर शाह ज़फ़र आज़ादी की पहली लड़ाई की नायक ही नहीं उस महान मुग़ल वंश के अंतिम शासक थे जिसने भारतीय इतिहास में एक ‘गौरवशाली अध्याय’ जोड़ा था। नेताजी ने अंग्रज़ों को जवाब देते हुए कहा था-“अशोक के क़रीब एक हज़ार साल बाद भारत एक बार फिर गुप्त सम्राटों के राज्य में उत्कर्ष के चरम पर पहुँच गया। उसके नौ सौ साल बाद एक बार फिर भारतीय इतिहास का का गौरवशाली अध्याय मुग़ल काल में आरंभ हुआ। इसलिए यह याद रखना चाहिए कि अंग्रेज़ों की यह अवधारणा कि हम राजनीतिक रूप में एक केवल उनके शासनकाल में ही हुए, पूरी तरह ग़लत है।
(पेज 274, खंड-12, नेताजी संपूर्ण वाङ्मय, प्रकाशन विभाग, भारत सरकार।)
नेताजी के ऐसा कहने के पीछे मुग़लकालीन भारत में आर्थिक, राजनैतिक, सामरिक और कलात्मक क्षेत्र में उन्नति के अलावा मेल-मिलाप की संस्कृति में हुए विकास की ओर ध्यान दिलाना था। कौन कहेगा कि नेताजी की इतिहास को लेकर समझ आरएसएस से कमज़ोर थी या फिर वे इस स्वंयभू राष्ट्रवादी संगठन से कम राष्ट्रवादी थे जो बात-बात में मुग़लों के ख़िलाफ़ ज़हर उगलता रहता है। लेकिन जिस तरह से एनसीईआरटी की किताबों से मुग़लों से जुड़े पाठ हटाये जा रहे हैं उसके पीछे आरएसएस की वही दृष्टि काम कर रही है जो नेताजी से उलट है। इतिहास को अपने रंग में रँगना आरएसएस का पुराना एजेंडा है और केंद्र में बीजेपी की सरकार होने पर वह इस दिशा में तेज़ी से बढ़ती है। इस समय मीडिया पूरी तरह मुग़लों से जुड़े पाठ को हटाने पर सुर्खी बनाने में जुटा है, वह भी आरएसएस की ही रणनीति है। उसे पता है कि इसकी आड़ में ‘अपने इतिहास’ से पीछा छुड़ाने का उसका षड़यंत्र पर्दे के पीछे छिप जाएगा।
हक़ीक़त ये है कि न सिर्फ़ मुग़लों से जुड़ा पाठ हटाया जा रहा है, बल्कि महात्मा गाँधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे से संघ के जुड़ाव और उस पर लगे प्रतिबंध से जुड़े तथ्य भी हटाये जा रहे हैं। साथ ही लोकतंत्र और जनांदोलनों से जुड़े पाठ भी हटाये जा रहे हैं जिनके ज़रिए मौजूदा बीजेपी सरकारों के कार्यकलाप को कसने की लोकतांत्रिक कसौटी छात्रों को मिलती है।“इतिहास कोई इमारत नहीं है जिसमें कोई मनचाही तोड़फोड़ करके नये नक्शे में ढाल दे। इतिहास लेखन एक पेशेवर काम है जो नये तथ्यों की रोशनी में ही बदला जा सकता है। पुरातात्विक या दस्तावेज़ी प्रमाण इसके लिए ज़रूरी हैं न कि किसी की इच्छा। जो तथ्यों से प्रमाणित नहीं होता वह किस्सा तो हो सकता है, इतिहास नहीं।दिक्कत ये है कि आरएसएस उन गप्पों को इतिहास में जगह दिलाना चाहता है जो उसकी शाखाओं में दशकों से हाँकी जाती हैं लेकिन पेशेवर इतिहास लेखन के परिसर के गेट पर ही दम तोड़ देती हैं।
उसे लगता है कि जब हर तरफ़ लोकतांत्रिक संस्थाओं पर क़ब्ज़े का एक दौर पूरा हो गया है तो इतिहास के परिसर पर भी क़ब्ज़ा किया जा सकता है। इस तरह वह उसी कहावत को चरितार्थ कर रहा है कि इतिहास का सबसे बड़ा सबक़ यही है कि इससे कोई सबक़ नहीं लेता। सरकारों की उम्र इतिहास की उम्र के सामने पानी का बुलबुला भर होती है।“मुग़लों का इतिहास न पढ़ाने के पीछे एक और वजह है। दरअसल, मुग़ल साम्राज्य का अध्ययन आरएसएस की इस मेहनत पर पानी फेर देता है कि मुग़ल काल सिर्फ़ ‘हिंदू-मुस्लिम संघर्ष’ का दौर था। ‘मुग़ल दरबार’ से जुड़ा पाठ इसीलिए हटाया गया है क्योंकि इसके बारे में अध्ययन होगा तो राजा मान सिंह, टोडरमल और बीरबल जैसे नवरत्न अकबर के साथ खड़े नज़र आयेंगे और उससे लोहा लेने वाले महाराणा प्रताप का साथ देते हुए हकीम ख़ाँ सूर दिखेगा। औरंगज़ेब के दरबार में मिर्जा राजा जय सिंह और जसवंत सिंह मिलेंगे और उसको कड़ी चुनौती देने वाले शिवाजी की सेना में तोपख़ान प्रमुख का नाम इब्राहिम ख़ान, नौसेना प्रमुख का नाम दौलत ख़ान और राजदूत बतौर क़ाज़ी हैदर का नाम दर्ज मिलेगा।