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यूकेलिप्टस के पेड़ मुझे कभी नहीं सुहाए। टहनियों से भरे घने छायादार वृक्षों की तुलना में इनका खालीपन मन को भी वैसा ही बना देता था। ट्रेन की खिड़की से बचपन में अक्सर आंखों के सामने से गुजरते गांवों के एक किनारे इनका जमावड़ा दिखाई दे जाता था। पत्तियों का झीना आवरण लिए इन वृक्षों पर अगर संत कबीर की नज़रें पड़तीं तो खजूर उनके इस दोहे में शायद अपनी इस बेइज्जती से बच पाता
बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर
पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर
60 से 80 तक के दशक में वन विभाग सहित कई सरकारी महकमों ने पूरे देश में इस वृक्ष का रोपण किया यह सोचकर इससे पथरीली बंजर भूमि को वनों से फिर आच्छादित किया जा सकेगा। यह नीति तब तक चलती रही जब तक इसके भूमि जल स्तर पर पड़ रहे बुरे प्रभाव से संबंधित अध्ययन सामने नहीं आए थे।
पर इन पेड़ों के बारे में मेरी धारणा पिछले साल एकदम से बदल गई। यूकेलिप्टस के जंगल भी बेहद घने और सुंदर हो सकते हैं, ऐसा अनुभव मुझे मैसूर से ऊटी आते वक्त हुआ।
ऊटी से सटे हुए इलाकों में पहली बार यूकेलिप्टस के पेड़ भारी संख्या में अंग्रेजों ने 1850 के आसपास ऑस्ट्रेलिया से मंगा कर लगाए। आज़ादी के बाद भी 50 के दशक में ऊटी के कल कारखानों में लकड़ी की लुगदी की आपूर्ति के लिए इस पेड़ को घाटी और गांव के किनारों में भी लगाया गया। आज वहां स्थापित उद्योगों में इसकी लकड़ी के इस्तेमाल के साथ साथ यूकेलिप्टस के तेल को भी आप ऊटी के बाजारों में बिकता पाएंगे।
मैसूर से ऊटी के रास्ते में लगभग आधा किमी का इलाका सौ डेढ़ सौ वर्ष पूर्व लगाए यूकेलिप्टस के आसमान छूते पेड़ों से भरा पड़ा है। पचास से सौ मीटर तक ऊंचे इन पेड़ों के शीर्ष को देखने के लिए चाहे आप जितनी गर्दन टेढ़ी कर लें सफलता आपको शायद ही मिलेगी। इन पेड़ों से धूप बड़ी मुश्किल से सड़क तक छन के आती है।
हमने भी इन पेड़ों के साथ कुछ वक्त साथ गुजारा। उसी की कुछ झलकियां 😊
#travelwithmanish #ooty #ootydiaries

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पिछले हफ्ते दिल्ली की एक दिनी यात्रा में तानसेन मार्ग तक जाना हुआ। ये वही दिन था जब रात की तेज बारिश ने दिल्ली की सड़कों व अंडरपास के आस पास जल जमाव से सारी दिल्ली सुबह से भीषण जाम से त्रस्त थी। दिन के तीन बजे के बाद जब फुर्सत हुई तो बाहर निकला। बाहर आसमान साफ था और ट्राफिक भी सामान्य हो चला था।
वापस लौटने में अभी घंटे दो घंटे का वक़्त था। गूगल मैप पर नज़र दौड़ाई तो देखा कि मात्र पन्द्रह मिनट की पैदल यात्रा से दिल्ली की मशहूर अग्रसेन की बावली तक पहुंचा जा सकता है। फिर क्या था चल पड़े तानसेन पथ को विदा कर बाराखंभा मार्ग की ओर। इसी रास्ते में बाईं ओर हैली रोड के लिए रास्ता कटता है जो आपको दस मिनट चलने के बाद अग्रसेन की बावली तक पहुँचा देता है। बावली रिहायशी इलाकों से यूँ घिर गयी है कि अगर पता न हो तो आप इस ऐतिहासिक भवन को बिना ध्यान दिए बगल से यूँ ही निकल जाएँ।🙂
बावली के सामने पहुँचकर पहला संशय तो इसके नाम को लेकर होता है। अग्रवालों के सिरमौर महाराज अग्रसेन के नाम से सामान्यतः जानी जाने वाली इस बावली यानी Stepwell को ASI अपनी पट्टिका में उग्रसेन का नाम देता है। इस बावली का स्थापत्य लोधी और तुगलक काल में बनाई गयी इमारतों से मिलता जुलता है। हालांकि ऐसी मान्यता है कि महाभारत काल में इसी स्थान पर अग्रोहा जो आज के हिसार के पास स्थित है, के राजा अग्रसेन ने यहाँ जल संचय के लिए एक बावली का निर्माण किया था। इन्हीं अग्रसेन के वंशज बाद में अग्रवाल कहलाए। शायद चौदहवीं शताब्दी में अग्रवाल समाज ने अग्रसेन द्वारा बनाई गयी इस बावली का इस रूप में विस्तार किया हो।
ये आयताकार बावली साठ मीटर लंबी और लगभग पन्द्रह मीटर चौड़ी है। गर्मियों में जब ये बावली सूखी होती है तो इसके तीनों मंजिलों के प्रवेश द्वार स्पष्ट दिखते हैं पर मैं जब यहाँ पहुँचा तो निचला द्वार पानी में डूबने के कारण दिख ही नहीं रहा था। उसी रास्ते में आगे बढ़ने पर एक कुआँ दिखाई देता है।
प्रवेश से कुंड तक का रास्ता तय करने में सौ से ज्यादा सीढ़ियां तय करनी पड़ती हैं। बलुआ पत्थरों से बनी दीवारें दोनों ओर बराबर अंतरालों पर मेहराबों से सुसज्जित हैं। युवाओं के लिए ये मेहराबें पोज़ मारने के लिए सबसे उपयुक्त स्थान हैं। कुएं के पास की छत पर चमगादड़ों और कबूतरों की फ़ौज़ रात और दिन में बारी बारी से गश्त देती है।
सीढियों से उल्टी तरफ एक छोटी सी मस्जिद भी है जिसकी एक दीवार क्षतिग्रस्त है। अच्छी बात ये है कि बावली के दोनों ओर थोड़े बहुत पेड़ बचे हैं। बावली के सामने अहाते में पीपल का पेड़ अपनी विशालता से ध्यान आकर्षित करता है। मैं तो यहाँ उमस भरे दिन पहुँचा पर सुबह सुबह इन पेड़ों के बीचों बीच सीढ़ियों पर शांति से बैठना सुकून देता होगा। फिल्म पीके में आपको याद हो तो नायक इन्हीं सीढ़ियों पर बैठकर सोच विचार में डूबा था। 🙂

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पिछले हफ्ते दिल्ली की एक दिनी यात्रा में तानसेन मार्ग तक जाना हुआ। ये वही दिन था जब रात की तेज बारिश ने दिल्ली की सड़कों व अंडरपास के आस पास जल जमाव से सारी दिल्ली सुबह से भीषण जाम से त्रस्त थी। दिन के तीन बजे के बाद जब फुर्सत हुई तो बाहर निकला। बाहर आसमान साफ था और ट्राफिक भी सामान्य हो चला था।
वापस लौटने में अभी घंटे दो घंटे का वक़्त था। गूगल मैप पर नज़र दौड़ाई तो देखा कि मात्र पन्द्रह मिनट की पैदल यात्रा से दिल्ली की मशहूर अग्रसेन की बावली तक पहुंचा जा सकता है। फिर क्या था चल पड़े तानसेन पथ को विदा कर बाराखंभा मार्ग की ओर। इसी रास्ते में बाईं ओर हैली रोड के लिए रास्ता कटता है जो आपको दस मिनट चलने के बाद अग्रसेन की बावली तक पहुँचा देता है। बावली रिहायशी इलाकों से यूँ घिर गयी है कि अगर पता न हो तो आप इस ऐतिहासिक भवन को बिना ध्यान दिए बगल से यूँ ही निकल जाएँ।🙂
बावली के सामने पहुँचकर पहला संशय तो इसके नाम को लेकर होता है। अग्रवालों के सिरमौर महाराज अग्रसेन के नाम से सामान्यतः जानी जाने वाली इस बावली यानी Stepwell को ASI अपनी पट्टिका में उग्रसेन का नाम देता है। इस बावली का स्थापत्य लोधी और तुगलक काल में बनाई गयी इमारतों से मिलता जुलता है। हालांकि ऐसी मान्यता है कि महाभारत काल में इसी स्थान पर अग्रोहा जो आज के हिसार के पास स्थित है, के राजा अग्रसेन ने यहाँ जल संचय के लिए एक बावली का निर्माण किया था। इन्हीं अग्रसेन के वंशज बाद में अग्रवाल कहलाए। शायद चौदहवीं शताब्दी में अग्रवाल समाज ने अग्रसेन द्वारा बनाई गयी इस बावली का इस रूप में विस्तार किया हो।
ये आयताकार बावली साठ मीटर लंबी और लगभग पन्द्रह मीटर चौड़ी है। गर्मियों में जब ये बावली सूखी होती है तो इसके तीनों मंजिलों के प्रवेश द्वार स्पष्ट दिखते हैं पर मैं जब यहाँ पहुँचा तो निचला द्वार पानी में डूबने के कारण दिख ही नहीं रहा था। उसी रास्ते में आगे बढ़ने पर एक कुआँ दिखाई देता है।
प्रवेश से कुंड तक का रास्ता तय करने में सौ से ज्यादा सीढ़ियां तय करनी पड़ती हैं। बलुआ पत्थरों से बनी दीवारें दोनों ओर बराबर अंतरालों पर मेहराबों से सुसज्जित हैं। युवाओं के लिए ये मेहराबें पोज़ मारने के लिए सबसे उपयुक्त स्थान हैं। कुएं के पास की छत पर चमगादड़ों और कबूतरों की फ़ौज़ रात और दिन में बारी बारी से गश्त देती है।
सीढियों से उल्टी तरफ एक छोटी सी मस्जिद भी है जिसकी एक दीवार क्षतिग्रस्त है। अच्छी बात ये है कि बावली के दोनों ओर थोड़े बहुत पेड़ बचे हैं। बावली के सामने अहाते में पीपल का पेड़ अपनी विशालता से ध्यान आकर्षित करता है। मैं तो यहाँ उमस भरे दिन पहुँचा पर सुबह सुबह इन पेड़ों के बीचों बीच सीढ़ियों पर शांति से बैठना सुकून देता होगा। फिल्म पीके में आपको याद हो तो नायक इन्हीं सीढ़ियों पर बैठकर सोच विचार में डूबा था। 🙂

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पिछले हफ्ते दिल्ली की एक दिनी यात्रा में तानसेन मार्ग तक जाना हुआ। ये वही दिन था जब रात की तेज बारिश ने दिल्ली की सड़कों व अंडरपास के आस पास जल जमाव से सारी दिल्ली सुबह से भीषण जाम से त्रस्त थी। दिन के तीन बजे के बाद जब फुर्सत हुई तो बाहर निकला। बाहर आसमान साफ था और ट्राफिक भी सामान्य हो चला था।
वापस लौटने में अभी घंटे दो घंटे का वक़्त था। गूगल मैप पर नज़र दौड़ाई तो देखा कि मात्र पन्द्रह मिनट की पैदल यात्रा से दिल्ली की मशहूर अग्रसेन की बावली तक पहुंचा जा सकता है। फिर क्या था चल पड़े तानसेन पथ को विदा कर बाराखंभा मार्ग की ओर। इसी रास्ते में बाईं ओर हैली रोड के लिए रास्ता कटता है जो आपको दस मिनट चलने के बाद अग्रसेन की बावली तक पहुँचा देता है। बावली रिहायशी इलाकों से यूँ घिर गयी है कि अगर पता न हो तो आप इस ऐतिहासिक भवन को बिना ध्यान दिए बगल से यूँ ही निकल जाएँ।🙂
बावली के सामने पहुँचकर पहला संशय तो इसके नाम को लेकर होता है। अग्रवालों के सिरमौर महाराज अग्रसेन के नाम से सामान्यतः जानी जाने वाली इस बावली यानी Stepwell को ASI अपनी पट्टिका में उग्रसेन का नाम देता है। इस बावली का स्थापत्य लोधी और तुगलक काल में बनाई गयी इमारतों से मिलता जुलता है। हालांकि ऐसी मान्यता है कि महाभारत काल में इसी स्थान पर अग्रोहा जो आज के हिसार के पास स्थित है, के राजा अग्रसेन ने यहाँ जल संचय के लिए एक बावली का निर्माण किया था। इन्हीं अग्रसेन के वंशज बाद में अग्रवाल कहलाए। शायद चौदहवीं शताब्दी में अग्रवाल समाज ने अग्रसेन द्वारा बनाई गयी इस बावली का इस रूप में विस्तार किया हो।
ये आयताकार बावली साठ मीटर लंबी और लगभग पन्द्रह मीटर चौड़ी है। गर्मियों में जब ये बावली सूखी होती है तो इसके तीनों मंजिलों के प्रवेश द्वार स्पष्ट दिखते हैं पर मैं जब यहाँ पहुँचा तो निचला द्वार पानी में डूबने के कारण दिख ही नहीं रहा था। उसी रास्ते में आगे बढ़ने पर एक कुआँ दिखाई देता है।
प्रवेश से कुंड तक का रास्ता तय करने में सौ से ज्यादा सीढ़ियां तय करनी पड़ती हैं। बलुआ पत्थरों से बनी दीवारें दोनों ओर बराबर अंतरालों पर मेहराबों से सुसज्जित हैं। युवाओं के लिए ये मेहराबें पोज़ मारने के लिए सबसे उपयुक्त स्थान हैं। कुएं के पास की छत पर चमगादड़ों और कबूतरों की फ़ौज़ रात और दिन में बारी बारी से गश्त देती है।
सीढियों से उल्टी तरफ एक छोटी सी मस्जिद भी है जिसकी एक दीवार क्षतिग्रस्त है। अच्छी बात ये है कि बावली के दोनों ओर थोड़े बहुत पेड़ बचे हैं। बावली के सामने अहाते में पीपल का पेड़ अपनी विशालता से ध्यान आकर्षित करता है। मैं तो यहाँ उमस भरे दिन पहुँचा पर सुबह सुबह इन पेड़ों के बीचों बीच सीढ़ियों पर शांति से बैठना सुकून देता होगा। फिल्म पीके में आपको याद हो तो नायक इन्हीं सीढ़ियों पर बैठकर सोच विचार में डूबा था। 🙂

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पिछले कुछ महीनों में वर्ष 2023 के अपनी पसंद के 25 गीत तो सरताज गीत को छोड़ बिना किसी रैकिंग और क्रम के सुना दिये। अब मेरी पसंद के इन गीतों को अगर आप अपने प्रथम दस में रखते तो वो किस क्रम में होता? और हाँ आप इन दस गीतों के इतर भी अपनी पसंद का गीत रख सकते हैं अगर वो फिल्म या एलबम पिछले साल यानी 2023 में रिलीज़ हुआ हो।
मेरी रैकिंग से सबसे ज्यादा अगर आप की रैकिंग मिलेगी तो फिर एक छोटा सा तोहफा आप के लिए🙂। आप अपनी पसंद इस पोस्ट के कमेंट सेक्शन में दे सकते हैं। और हां अपनी पसंद आप मुझे 19 जुलाई रात बारह बजे तक बता सकते हैं।
तो ये रहे वार्षिक संगीतमाला 2023 में मेरी पसंद के पच्चीस गीत
# वो तेरे मेरे इश्क़ का.. जुबली
# मैं परवाना तेरा नाम बताना... पिप्पा
# रुआँ रुआँ खिलने लगी है....पोन्नियन सेल्वन-2 (PS-2)
# दिल झूम झूम जाए.... गदर 2
# बाबूजी भोले भाले..... जुबली
# नौका डूबी रे.... Lost
# तेरे वास्ते फ़लक़ से मैं चाँद लाऊँगा... ZHKZBK
# चल उड़ चल सुगना गउवाँ के ओर.....भीड़
# उड़े उड़नखटोले नयनों के तेरे..... जुबली
# आ जा रे आ बरखा रे....सुनिधि व अरिजीत (स्वतंत्र संगीत)
# तू है तो मुझे और क्या चाहिए.... ZHKZBK
# बोलो भी बोलो ना... 12th Fail
# पहले भी मैं तुमसे मिला हूँ..... Animal
# मुक्ति दो मुक्ति दो ...पोन्नियन सेल्वन-2 (PS-2)
# कैसी कहानी ज़िंदगी?.... शान्तनु घटक (स्वतंत्र संगीत)
# कल रात आया मेरे घर एक चोर... Justh (स्वतंत्र संगीत)
# वे कमलेया.... RARKPK
# आधा तेरा इश्क़ आधा मेरा..सतरंगा... Animal
# तुम क्या मिले... RARKPK
# ओ माही ओ माही...डंकी
# ये गलियों के आवारा बेकार कुत्ते...कुत्ते
# कि रब्बा जाणदा...मिशन मजनू
# पल ये सुलझे सुलझे उलझें हैं क्यूँ...तरला
# कि देखो ना बादल..नहीं जी नहीं............... जुबली
# कुछ देर के लिए रह जाओ ना.... तेजस

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हमारे कार्यालय में हर साल स्थापना दिवस के साथ रंगारंग सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया जाता रहा है जिसमें हमारे सहकर्मी और उनके परिवार के सदस्य बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते रहे हैं।
कार्यक्रम के उद्घोषक के अलावा एक बार मुझे एक नाटक के निर्देशन का कार्य सौंपा गया था। हास्य के पुट से सराबोर वो पटकथा हमारे एक वरीय अधिकारी ने लिखी थी जिसमें यमराज और चित्रगुप्त आज के परिवेश में आए मेहमानों को स्वर्ग और नर्क का आबंटन कर रहे होते हैं।
इस बार हमारी टीम को अपने संस्थान के लिए एक कुल गान रचना था। अपने सहकर्मियों के सुझावों और उनमें कुछ परिवर्तन के साथ हमने एक गीत और उसकी एक लय तैयार की और फिर उसे एक कोरस में गा भी दिया।
नृत्य करने में आज कल के बच्चे और युवा हमारी जेनरेशन से कहीं आगे हैं। बच्चों और बड़ों के उत्साह का ये आलम था का कि इस बार प्रतिभागियों की संख्या सौ के करीब पहुंच गई।
देखिए इसी कार्यक्रम की कुछ छोटी छोटी झलकियां।😊

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हमारे कार्यालय में हर साल स्थापना दिवस के साथ रंगारंग सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया जाता रहा है जिसमें हमारे सहकर्मी और उनके परिवार के सदस्य बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते रहे हैं।
कार्यक्रम के उद्घोषक के अलावा एक बार मुझे एक नाटक के निर्देशन का कार्य सौंपा गया था। हास्य के पुट से सराबोर वो पटकथा हमारे एक वरीय अधिकारी ने लिखी थी जिसमें यमराज और चित्रगुप्त आज के परिवेश में आए मेहमानों को स्वर्ग और नर्क का आबंटन कर रहे होते हैं।
इस बार हमारी टीम को अपने संस्थान के लिए एक कुल गान रचना था। अपने सहकर्मियों के सुझावों और उनमें कुछ परिवर्तन के साथ हमने एक गीत और उसकी एक लय तैयार की और फिर उसे एक कोरस में गा भी दिया।
नृत्य करने में आज कल के बच्चे और युवा हमारी जेनरेशन से कहीं आगे हैं। बच्चों और बड़ों के उत्साह का ये आलम था का कि इस बार प्रतिभागियों की संख्या सौ के करीब पहुंच गई।
देखिए इसी कार्यक्रम की कुछ छोटी छोटी झलकियां।😊

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हमारे कार्यालय में हर साल स्थापना दिवस के साथ रंगारंग सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया जाता रहा है जिसमें हमारे सहकर्मी और उनके परिवार के सदस्य बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते रहे हैं।
कार्यक्रम के उद्घोषक के अलावा एक बार मुझे एक नाटक के निर्देशन का कार्य सौंपा गया था। हास्य के पुट से सराबोर वो पटकथा हमारे एक वरीय अधिकारी ने लिखी थी जिसमें यमराज और चित्रगुप्त आज के परिवेश में आए मेहमानों को स्वर्ग और नर्क का आबंटन कर रहे होते हैं।
इस बार हमारी टीम को अपने संस्थान के लिए एक कुल गान रचना था। अपने सहकर्मियों के सुझावों और उनमें कुछ परिवर्तन के साथ हमने एक गीत और उसकी एक लय तैयार की और फिर उसे एक कोरस में गा भी दिया।
नृत्य करने में आज कल के बच्चे और युवा हमारी जेनरेशन से कहीं आगे हैं। बच्चों और बड़ों के उत्साह का ये आलम था का कि इस बार प्रतिभागियों की संख्या सौ के करीब पहुंच गई।
देखिए इसी कार्यक्रम की कुछ छोटी छोटी झलकियां।😊

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