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हिंसा के महासागर में उनका हृदय अहिंसक हैं। युद्ध के ज्वालामुखी में उनका मन साक्षी भाव है।
यह गीता उपदेशक लिये कहा गया अमृतवचन है।
हिंसा का अर्थ प्रतिशोध, घृणा ही नहीं है। हिंसा उस समय धर्म है जब अस्तित्व का प्रश्न हो। क्योंकि धर्म और जीवन मूल्य आधार में ही विकसित होंगे। हवा में किसी पुष्प का परागकण अंकुरित नहीं हो सकता क्यों न उसकी महक वातावरण को सुशोभित करती हो। उसको भी भूमि का आधार चाहिये।
रावण के रहते राम की मर्यादा स्थापित नहीं हो सकती है। हिंसा उस समय धर्म है, जब राम विजयी होते हैं।
यदि भारत हिंसा को एक सिरे से नकार देता तो उसका अस्तित्व मिट गया होता । झेलम के तट से गंगा यमुना के दोआब तक और गोदावरी के विस्तार तक भारतीयों ने हजारों युद्ध लड़े हैं। संसार के सभी आक्रांताओं को हमनें चुनौती दी है।
भारत लड़ता रहा, लड़ रहा है, लड़ता रहेगा। उसे शांति और हिंसा दोनों स्वीकार्य है। शांति आवश्यकता है, हिंसा विवशता है। दोनों ही व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र के जीवन का अंग हैं।।