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हरिको ऐसोइ सब खेल।
मृग-तृस्ना जग ब्याप रही हैं, कहूँ बिजोरो न बेल॥
धनमद जोबनमद और राजमद, ज्यों पंछिनमें डेल।
कह हरिदास यहै जिय जानौ, तीरथ को सो मेल॥हरिके नामको आलस क्यों करत है रे काल फिरत सर साँधैं।
हीरा बहुत जवाहर संचे, कहा भयो हस्ती दर बाँधैं॥
बेर कुबेर कछू नहिं जानत, चढ़ो फिरत है काँधैं।
कहि हरिदास कछू न चलत जब, आवत अंत की आँधैं॥हित तौ कीजै कमलनैनसों,
जा हित आगे और हित लागो फीको।
कै हित कीजै साधुसँगतिसों,
जावै कलमष जी को॥१॥
हरिको हित ऐसो जैसो रंग-मजीठ,
संसारहित कसूंभि दिन दुतीको।
कहि हरिदासहित कीजै बिहारी सों
और न निबाहु जानि जी को॥२॥काहू को बस नाहिं तुम्हारी कृपा तें, सब होय बिहारी बिहारिनि।
और मिथ्या प्रपंच काहेको भाषियै, सो तो है हारनि॥१॥
जाहि तुमसों हित ताहि तुम हित करौ, सब सुख कारनि।
श्रीहरिदासके स्वामी स्यामा कुंजबिहारी, प्राननिके आधारनि॥२॥जौं लौं जीवै तौं लौं हरि भजु, और बात सब बादि।
दिवस चारि को हला भला, तू कहा लेइगो लादि॥
मायामद, गुनमद, जोबनमद, भूल्यो नगर बिबादि।
कहि 'हरिदास लोभ चरपट भयो, काहे की लागै फिरादि॥