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लाखों लोगों की कुर्बानी की बदोलत देश आजाद हुआ ,देश के सबसे बड़े अनशन सत्याग्रही शहीद जतिननाथ / बाघा जतिन...पुण्यतिथि आज 10 सितम्बर...
आम्र्रा मोरबो , जगोत जागबे (मै मरूँगा ..देश जाग जायेगा...)
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देश की आजादी के लिये अपनी जान गंवाने वाले क्रांतिकारी बाघा जतिन का असली नाम जतीन्द्रनाथ मुखर्जी था। उनका जन्म 07 दिसंबर 1879 को वर्तमान बांग्लादेश में हुआ था। मैट्रिक पास करके वे जीविकोपार्जन हेतु स्टेनोग्राफी सीखकर कोलकाता विश्वविद्यालय नौकरी करने लगे । वे शारीरिक रूप से बलिष्ठ थे - एक बार जंगल से गुजरते हुए उनकी मुठभेड़ एक बाघ से हुई , उन्होंने बाघ को अपने हंसिये से मार गिराया , इस घटना के बाद यतीन्द्रनाथ "बाघा जतीन" नाम से विख्यात हो गए । वे युगान्तर पार्टी के मुख्य नेता थे। अंग्रेजों की बंग-भंग योजना का का उन्होने खुलकर विरोध किया। 1910 में वे 'हावड़ा षडयंत्र केस' में गिरफ्तार किए गए और साल भर जेल में रहे । जेल से मुक्त होने पर वे अरविंदो घोष की 'अनुशीलन समिति' के सक्रिय सदस्य बन गए । क्रांतिकारियों के पास आन्दोलन के लिए धन जुटाने का प्रमुख साधन डकैती था। इन डकैतियों में अँग्रेजी कंपनी 'गार्डन रीच' की डकैती बड़ी मशहूर मानी जाती है। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान वे जर्मनी से सहायता लेकर भारत को आज़ाद कराना चाहते थे लेकिन 10 सितंबर 1915 को वे अपने गुप्त अड्डे 'काली पोक्ष' पर अंग्रेजों से सशस्त्र मुठभेड़ में मारे गए । उन्हें एक दार्शनिक क्रांतिकारी भी कहा जाता है । 1925 में गांधीजी ने उन्हें एक दैवीय व्यक्तित्व कहा था ।
पुण्यतिथि पर अमर-शहीद बाघा जतिन को मेरा कोटि -कोटि नमन एवं श्रद्धांजलि !!!
स्वाधीनता के पुरोधा थे जोरावर सिंह बारहठ
भीलवाड़ा| स्वाधीनतासंग्राम में 1857 की क्रांति विफल होने पर अंग्रेज विश्व में ‘ब्रिटिश अजेय है’ की भावना स्थापित करना चाहते थे। उस समय राजस्थान में भी कई क्रांतिकारी आजादी के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने को तत्पर थे। इनमें केसरी सिंह बारहठ, उनके भाई जोरावर सिंह बारहठ एवं पुत्र प्रताप सिंह बारहठ भी थे। एक ही परिवार के पिता-पुत्र भाई ने स्वाधीनता के लिए कुर्बानी दी हो ऐसा यह अनूठा उदाहरण है। जोरावर सिंह बारहठ का जन्म 12 सितंबर 1883 को उदयपुर में हुआ। इनका पैतृक गांव भीलवाड़ा की शाहपुरा तहसील का देवखेड़ा है। उनके पिता कृष्ण सिंह बारहठ इतिहासकार साहित्यकार थे। उनके बड़े भाई केसरी सिंह बारहठ देशभक्त, क्रांतिकारी विचारक थे। इतिहास-वेत्ता किशोर सिंह भी उनके भाई थे। जोरावर सिंह की प्रारंभिक शिक्षा उदयपुर उच्च शिक्षा जोधपुर में हुई। उन्होंने महलों का वैभव त्यागकर स्वाधीनता आंदोलन को चुना। उनका विवाह कोटा रियासत के ठिकाने अतरालिया के चारण ठाकुर तख्तसिंह की बेटी अनोप कंवर से हुआ। उनका मन वैवाहिक जीवन में नहीं रमा। उन्होंने क्रांति पथ चुना और स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। रासबिहारी बोस ने लार्ड हार्डिंग्ज बम कांड की योजना को मूर्तरूप देने के लिए जोरावरसिंह प्रतापसिंह को बम फेंकने की जिम्मेदारी सौंपी, 23 दिसंबर, 1912 को वायसराय लार्ड हार्डिंग्ज का जुलूस दिल्ली के चांदनी चौक से गुजर रहा था। भारी सुरक्षा के बीच वायसराय हाथी पर प|ी के साथ था। चांदनी चौक स्थित पंजाब नेशनल बैंक भवन की छत पर भीड़ में जोरावर सिंह और प्रतापसिंह बुर्के में थे। जैसे ही जुलूस सामने से गुजरा, जोरावरसिंह ने हार्डिंग्ज पर बम फेंका, लेकिन पास खड़ी महिला के हाथ से टकरा जाने से निशाना चूक गया और हार्डिंग्ज बच गया। छत्र रक्षक महावीर सिंह मारा गया। इससे हुई अफरा-तफरी में एक ही एक गूंजी ‘शाबास’। आजादी के आंदोलन की इस महत्वपूर्ण घटना ने ब्रिटिश साम्राज्य की चूलें हिला दी थी। जोरावर सिंह प्रतापसिंह वहां से सुरक्षित निकल गए। इसके बाद जोरावरसिंह मध्यप्रदेश के करंडिया एकलगढ़ में साधु अमरदास बैरागी के नाम से रहे। वे कभी-कभार गुप्त रूप से प|ी परिजनों से मिलते थे। उनके कोई संतान नहीं थी। जोरावर सिंह को वर्ष 1903 से 1939 तक 36 वर्ष की अवधि में अंग्रेज सरकार गिरफ्तार नहीं कर सकी। 17 अक्टूबर, 1939 में उनका देहावसान हुआ। एकल-गढ़ (मप्र) में उनका स्मारक है।
12 सितंबर 1897 को सारागढी युद्ध हुआ
जिसमें 36 वीं सिख रेजिमेंट के 21 बहादुर सैनिको ने
10000 अफगान गुस्पेठियों को जो किले पर कब्जा करने की नियत से आये, उनमें से 900 को मौत के घाट उतार कर बलिदानी हासिल की
जब कि वो चाहते तो जान बचकर निकल सकते थे लेकिन भगोड़े होने से लड़कर बलिदान को चुना और 7 घंटे तक युद्ध किया।
ऐसे महान वीरों की शहादत को नमन
ऐसे महान वीरों के किस्सों को स्कूली किताबों में शामिल करना आवश्यक हैं।