पहली बार मिला मैं मौन से, 
दिल के भीतर रहता था। 
मेरी तर्कहीन चीख़ों से- 
छुपकर डरकर रहता था। 
मैंने कहा खुलकर के बोलो, 
आज मिले हो जो मुझसे, 
रख दो सारे सामने मेरे- 
शिकवे गिले हो जो मुझसे। 
उसकी बातों ने बतलाया- 
मुझको ये एहसास कराया, 
भीड़ की बस्ती की सरहद पर 
वो कैसे बेघर रहता था। 
पहली बार मिला मैं मौन से, 
दिल के भीतर रहता था। 
बुद्ध की मुस्कान है मुझमें, 
जो मुझको स्वीकारो तो, 
मैं हिमालय सा सुकून 
जो आकर डेरा डारो तो। 
मैं मकरन्द के मंदर सा, 
मुझमें दो पल गुज़ारो तो। 
सोचा ऐसा कह दे मुझको- 
पर मन मसोसकर रहता था। 
पहली बार मिला मैं मौन से, 
दिल के भीतर रहता था।  
शोर भरी उलझनों के 
रस्तों में शजर की छाँव सा हूँ, 
मैं गोधूली पगड़ी बाँधे हुए- 
तेरे बाबा के गाँव सा हूँ। 
मेरी इस मुलाक़ात से पहले- 
आज हुई इस बात से पहले, 
वो धरती के एक छोर सा- 
मुझसे कटकर रहता था। 
पहली बार मिला मैं मौन से, 
दिल के भीतर रहता था।