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मेरा एनडीटीवी से वैसा रागात्मक जुड़ाव नहीं है जैसा अन्य पुराने लोग प्रकट कर रहे हैं। इसकी वज़ह आयु का अंतर हो सकता है।
अडाणी ने एनडीटीवी को अनैतिक अथवा असंवैधानिक तरीक़े से नहीं ख़रीदा है। ऋण लिया था। भरा नहीं। शर्तों के मुताबिक़ बेचना पड़ा। बस। व्यवसायियों की आपसी लड़ाई है।
लेकिन मैंने रवीश से बहुत प्रेम किया है। बड़े मन से पेंसिल से उनका चित्र बनाया था। आरंभिक दिनों में स्क्रीन पर मैं उनको काॅपी किया करता था। अब अरसे से उनकी पत्रकारिता से मन खिन्न था। यह अलग बहस है। लेकिन जो भी हो, इश्क़ होता है तो रहता ही है। अगर रवीश यहाॅं एनडीटीवी में रह जाते तो बहुत खलता। स्क्रीन से हट गए तो भावुक हूॅं। वैसे ही जैसे धोनी भले ही आईपीएल खेले लेकिन उन्हें नीली जर्सी में खेलते देखने की अनुभूति भिन्न थी।
शुक्रिया रवीश।