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"रामहि सुमिरत रन भिरत, देत परत गुरु पायँ।
‘तुलसी’ जिन्हहि न पुलक तनु, ते जग जीवत जाएँ।।"
यह दोहा गोस्वामी तुलसीदास जी की भक्ति-भावना का अत्यंत मार्मिक और गूढ़ उदाहरण है:
शब्दार्थ:
रामहि सुमिरत: श्रीराम का स्मरण करते हुए
रन भिरत: युद्ध करते हुए
देत परत गुरु पायँ: गुरु के चरणों में अर्पण करते हुए
पुलक तनु: शरीर में रोमांच होना
जग जीवत जाएँ: संसार में जीते हुए समझे जाएँ
भावार्थ (अर्थ) — रामचरितमानस और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से:
तुलसीदास जी कहते हैं कि चाहे कोई युद्धभूमि में लड़ रहा हो, श्रीराम का स्मरण कर रहा हो, या गुरु के चरणों में स्वयं को अर्पित कर रहा हो — इन शुभ कर्मों के समय भी यदि किसी के शरीर में भक्तिभाव से रोमांच (पुलक) नहीं होता, तो ऐसे व्यक्ति का इस संसार में जीवित रहना भी व्यर्थ है।
आध्यात्मिक दृष्टि से — यह दोहा सच्ची भक्ति की पहचान को दर्शाता है। केवल क्रियाओं से नहीं, बल्कि अंतरतम की भावना और श्रीराम के प्रति आत्मिक प्रेम से ही भक्ति सफल होती है। यदि श्रीराम का नाम सुनने पर भी हृदय पुलकित न हो, तो जीवित होकर भी वह आत्मा जैसे मृत ही है।
रामचरितमानस का सन्दर्भ:
इस भाव को मानस के कई स्थलों से जोड़ा जा सकता है, जैसे —
श्रीराम के नाम और गुणों का स्मरण करने पर निषादराज, शबरी, हनुमान जैसे भक्तों का रोम-रोम भक्तिभाव से पुलकित हो उठता है।
शबरी के श्रीराम के दर्शन के समय उसका शरीर पुलकित हो गया था — यह बताता है कि सच्चा भक्त श्रीराम के स्मरण से ही आनंद और परमानंद से भर उठता है।
संदेश:
तुलसीदास जी इस दोहे के माध्यम से हमें यह सिखा रहे हैं कि भक्ति केवल कर्मकांड या बाहरी आचरण से नहीं होती, बल्कि जब हृदय श्रीराम के नाम से रोमांचित होता है, वही सच्ची भक्ति है। इसके बिना जीवन अधूरा है।
।। जय श्री राम ।।