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Social Media, Digital World is Goldmines.
Emotions wins, logical people stays behind.. Emotional people can manage to make windfall money in this emotional world..
But in long run.. Emotionals people would cry & become depressed since their work is not of deep, meaningful nature & Logical people would enjoy more stability, steady success & good prosperity ahead.. because they are doing more meaningful, deep work..
Mobile phone मे उलझकर घंटो घंटे बर्बाद ना करे। Mobile phone में आपको गरीब और अमीर दोनो बनाने की ताकत है।
मूर्खों के हात मे हो तो मूर्ख खुद ही खुद को गरीब बनाएगा।
प्रज्ञावान, बुद्धिमान लोग इसका सही इस्तमाल कर के, ज्ञानी, धनवान, अमीर बनेंगे।
Mobile phone के ताकत को पहचाने। खुद की और समाज की आर्थिक, बौद्धिक, मानसिक, सामाजिक, राजनैतिक, धम्म मजबूती, श्रेष्ठता बढ़ाए।
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जिन हिरदै परहित बसै, निजहित सपनेहुँ नाहिं।
'जीव' सतत नरनारि सब, बसैं 'राम' उर माहिं॥
मित्रो! क्या हम जानते हैं, परोपकारी कैसे होते हैं ? इनका स्वभाव कैसा होता है ?
कदाचित! हम नहीं जानते। परोपकार करनेवाला तो स्वतः को मिटाकर भी परोपकार करना नहीं छोड़ता। उसे मृत्यु का भी कोई भय नहीं होता। वह मृत्यु को प्राप्त होने के पश्चात् भी पुनर्जन्म लेकर फिर परहित-साधन में अपने-आपको को संलग्न कर लेता है। धन्य हैं वे मनुष्य जो निरन्तर प्राणीमात्र की सेवा में कार्यरत हैं।
रहिमन पर उपकार के, करत न यारी बीच।
माँस दियो शिवि भूप ने, दीन्हें हाड़ दधीच॥
महाराज शिवि ने एक कपोत की जान बचाने के लिए एक बाज के समक्ष अपने-आपको ही समर्पित कर दिया तो पुण्यात्मा दधीचि ऋषि ने देवासुर संग्राम में निज हड्डियों का वज्र बनाने के लिए महाराज इन्द्र को आपने प्राणों को त्यागकर देह की हड्डियों
को समर्पितकर दिया, लेकिन बदले में सम्बन्धित से कुछ भी नहीं माँगा और न ही भगवान् से कोई याचना करी।
एक परस्वार्थी, एक परहितकारी का ये अकाट्य स्वभाव है जो उसे भगवान् ने प्रदान किया है। स्वार्थी कभी किसी का हित नहीं कर सकता। वह कभी किसी का शुभचिंतक नहीं हो सकता। ये ध्रुव सत्य है।
हम यदि कभी किसी के हित-साधक बनते हैं तो बदले में सम्बन्धित से कुछ चाहते हैं, कुछ नहीं तो यह कि सम्बंधित हमारा अहसानमंद रहे, हमारी प्रशंसा करता रहे। ऐसी चाहत हम ईश्वर से भी रखते हैं कि हमने अच्छा किया है, इसके बदले में हे ईश्वर! मुझे अच्छा देना।
ये सच है कर्मफल अवश्यंभावी हैं, कर्मों के फल तो ईश्वर के विधानानुसार प्राप्त होना ही हैं पर विडम्बना देखिए! जब हम अपने अनुसार कोई अच्छा काम करते हैं तो भगवान् से उसके अच्छे फल शीघ्रातिशीघ्र चाहते हैं। ये व्यापार नहीं तो क्या है ?
इसके ठीक विपरीत यदि जाने-अनजाने हमसे कोई दुष्कर्म संपादित होता है तो दण्डस्वरूप उसके फलों की कभी इच्छा नहीं रखते। प्रथम तो हम उसे झुठलानेका ही प्रयास करते हैं और यदि हमारी आत्मा उसे झुठलाने में विफल रहती है तो हम भगवान् से क्षमायाचना करते हैं। श्रीभगवान् से ये क्षमायाचना करना अच्छी बात है लेकिन क्षमायाचना के बाद भी दुष्कर्मों को दोहराते रहना सर्वथा गलत है।
यदि हम स्वतः को इस दुनियाँ में अक्षुण्य रखना चाहते हैं, हम चाहते हैं कि ये दुनियाँ हमको सम्मानपूर्ण दृष्टि से याद करती रहे, हमारा लोक और परलोक दोनों बनें, हमें ईश्वर की प्राप्ति हो तो हमें अपने स्वभाव में परिवर्तन लाना चाहिए। हमें निःस्वार्थ भाव से प्राणीमात्र की सेवा अर्थात् परहित में सतत् संलग्न रहना चाहिए।
"परहित सरिस धरम नहिं भाई। परपीड़ा सम नहिं अधमाई"॥
(गोस्वामी तुलसीदास श्रीरामचरितमानस)
अन्यथा, निम्नानुसार ही चरितार्थ होगा-
बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।
पंछी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर॥
!!! जय श्रीराधे-जय श्रीकृष्ण !!!