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चीन से लगा एक बंजर देश है,
मंगोलिया।
वहाँ के चरवाहे,
पूरे संसार की लगभग सभी सभ्यताओं को नष्ट कर दिये।
इसी मंगोलों कि एक शाखा ने इस्लाम ग्रहण किया।
तबाही मचा दिये।
एक वाक्य में सूत्र है।
' सभ्यता, खानाबदोश के सामने हारती आई है। '
इसमें अपवाद भी नहीं है।
सभ्यता के पास युद्ध से भी अधिक बहुत कुछ खोने को रहता है।
घर, परिवार, शिक्षा, संस्कृति, धर्म , प्रियजन।
किताबें, पुस्तकें जो लिखी है। वह तो ठीक है।
थोड़ा विवेक , बुद्धि तो ईश्वर ने उन लोगों को भी दिया तो होगा ही। जो यह प्रश्न करते, हम तुर्को , मुगलों के सामने क्यों हारते थे।
उनसे कौन सी सभ्यता नहीं हारी है ?
सब तो नष्ट ही हो गये।
मात्र 200 वर्ष में एशिया, अफ्रीका , यूरोप के भाग इस्लामिक हो गये।
जिस समय यह सब, संसार में हो रहा था।
भारत की हर नदी के मैदान युद्ध क्षेत्र बने थे।
भारत में निशानी के रूप में, विजय से अधिक, उनकी कब्र मिलेगी।
भारत का इतिहास, दिल्ली का इतिहास नहीं है।
मेवाड़ के महाराणा,
मराठा के छत्रपति,
दक्कन के कृष्णदेव राय,
राष्ट्रकूट,
गुजरात के सोलंकी,
असम लचित बाकफुन,
बुंदेलखंड के छत्रसाल,
पंजाब के गुरुगोविंद सिंह,
सुहेलदेव --- यह सूची बड़ी लंबी है ---
का भी इतिहास है।
यह काल तब का है, उसको लेकर गुलाम मानसिकता के लोग, प्रश्न करते है।
इन सब के बाद भी कहते है।
सिद्धान्त, सिद्धांत होता है।
सभ्यता, खानाबदोश से हारती रही है।
4 बंदूकधारी, पूरे शहर को यलगमार बना सकते है।
आप कितने भी वीर हो, आपके बच्चे की गर्दन पर चाकू रखकर कोई भी घुटने पर ला सकता है। लेकिन यह बात तभी समझ आयेगी, जब सामने घटित हो। बाकी ढींगे मारते रहिये।
इस सभ्यता में कभी कोई कल्पना न किया होगा।
कोई इतना भी असभ्य, दुर्दांत हो सकता है।
जो नालंदा, विक्रमशिला जैसे विश्वप्रसिद्ध विश्वविद्यालय को जला सकता है।
लेकिन ऐसा हुआ है।
आज हमारे पास एक बहादुर, सुसंगठित विश्व की चौ