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हरिहर राय और बुक्का की हत्या के इरादे से भिक्षुकों के भेष में काजी शिराज़ और उसके सात साथी अरागुलू (गोल नाव) में बैठ कर कृष्णा नदी पार कर गए।

विजयनगर की सेना के साथ नर्तकियों की मंडली भी चला करती थी, जो रात्रि में उनका मनोरंजन करती थी। काजी शिराज़ नदी पार करते ही इनकी मंडली में शामिल हो गया और इसकी मुख्य नर्तकी को प्रेम-पाश में बाँधने लगा। वह उनसे उनकी (तेलुगु?) भाषा में ही संवाद कर रहा था।

एक दिन जब नर्तकी साज-शृंगार में व्यस्त थी, तो उसने कहा, “सुंदरी! यह शृंगार किसके लिए कर रही हो। मैं तो तुम्हारे समक्ष ही उपस्थित हूँ।”

“यह शृंगार तुम्हारे लिए नहीं, विजयनगर के छोटे राजकुमार के लिए है। मेरा सौभाग्य है कि आज मुझे उन्होंने नृत्य के लिए आमंत्रित किया है।”

“और मेरा प्रेम? तुम मुझे किसी राजकुमार के लिए त्याग दोगी?”

“नहीं पागल! यह तो मात्र आज का बुलावा है, जहाँ मुझे जाना ही होगा”

“मुझे भी अपने साथ ले चलो”

“(हँस कर) तुम वहाँ क्या करोगे? तुम्हें नाचना-गाना आता है?”

“मेरा उपहास मत करो, सुंदरी! पूरे विजयनगर का कोई भी संगीतकार मेरी तरह मंडल (तार-यंत्र) नहीं बजा सकता”

“अच्छा? पूरे विजयनगर में? फिर मैं तुम्हें कैसे नहीं पहचानती?”

“मैं अपना संगीत छुपा कर रखता हूँ। तुम्हारी जैसी अपूर्व सुंदरी भी तो अब तक नहीं मिली थी”

“अब मेरी झूठी प्रशंसा बंद करो, और तैयार हो जाओ। राय के लिए मात्र हमारी ही नहीं, कई मंडलियाँ जा रही है।”

“तुम ही बताओ, मैं कौन से वस्त्र पहन लूँ”

“(हँस कर) हमारी मंडली में तो पुरुष भी महिलाओं के वस्त्र पहन कर ही नाचते-गाते हैं। कर पाओगे?”

“तुम्हारे प्रेम में तो मैं कोई भी वस्त्र पहन लूँ”

राजकुमार की छावनी में उस दिन दर्जनों मंडलियाँ आयी थी। उत्सव का माहौल था। राजकुमार (बुक्का के छोटे भाई) स्वयं मंच पर बैठे थे, और एक-एक कर नाचने-गाने वाली टोलियाँ आ रही थी। आखिर वह टोली भी आयी, जिसमें काजी शिराज़ स्त्री-भेष में मंडल बजा रहा था।

काजी वाकई गज़ब का फनकार था, और उसने अपने मंडल से राजकुमार का मन मोह लिया।

उन्होंने उसे अपने पास बुलाया, “तुम किस क्षेत्र से आए हो? आज तक तुम्हारा संगीत मैंने क्यों नहीं सुना? यहाँ ऊपर मंच पर आओ। हम तुम्हें पुरस्कृत करना चाहते हैं।”

काजी राजकुमार के पास पहुँचा, और उनके अभिवादन में झुक गया। तभी उसने आस्तीन से खंजर निकाल कर राजकुमार की छाती में घोंप दिया!

यह देखते ही वहाँ खलबली मच गयी। काजी कूद कर पीछे की तरफ़ भाग गया। काजी के साथियों ने मशालें उठा कर फेंक दी। छावनियाँ जलने लगी। घोड़े घबरा कर बेतहाशा हिनहिनाने लगे। फिरोज़ शाह की सेना इशारा देख कर कृष्णा नदी पार कर गयी, और विजयनगर सेना पर हमला कर दिया।

अगले कुछ दिनों रायचूर के दोआब में हज़ारों के खून बहे, कई जानें गयी। बूढ़े राजा हरिहर राय पुत्र-शोक में दुखी थे, और पुनः शांति चाहते थे।

उन्होंने संदेश भिजवाया, “हमें अब इस रक्तपात का अंत करना चाहिए। इस युद्ध में किसी का हित नहीं है। सुल्तान से अनुरोध है कि वह कृष्णा नदी पार कर गुलबर्गा लौट जाएँ। हमारी सेना भी तुंगभद्रा नदी पार कर विजयनगर लौट जाएगी। रायचूर पर हम दोनों राज्यों का साझा शासन रहेगा।”

फिरोज़ शाह ने प्रस्ताव मान लिया। दोनों सेनाएँ वापस लौट गयी।

इस युद्ध के ठीक बाद अक्तूबर 1399 ईसवी में हरिहर राय (द्वितीय) चल बसे, और बुक्का राय (द्वितीय) नए राजा बने। बुक्का राय बहमनियों को रायचूर के राजस्व से फूटी कौड़ी भी नहीं देना चाहते थे। उन्होंने गुजरात, मालवा और खानदेश के हिंदू राजाओं के साथ मिल कर बहमनी सल्तनत पर आक्रमण की योजना बनायी, लेकिन 1406 ईसवी में उनकी भी मृत्यु हो गयी।

नए राजा बने उनके छोटे भाई देव राय। देव राय संभवतः इतिहास के पन्नों में गुम हो जाते, अगर वह भी आक्रमण नहीं करते। संभवतः वह आक्रमण नहीं करते, अगर उनके पास एक ब्राह्मण आकर यह नहीं कहते-

“रायचूर के मुद्गल में एक कृषक की बेटी रहती है, जिसमें तीनों लोकों का संपूर्ण सौंदर्य समाहित है…किंतु वह इतनी स्वाभिमानी है कि उसने विजयनगर के राजा का विवाह-प्रस्ताव ठुकरा दिया है।”

(क्रमशः)

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