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ऐसा नहीं है कि मैं पैदायशी चायोहॉलिक थी.. ऐसा भी नहीं कि शैशवावस्था में मुझे चाय पसंद नहीं थी.
जब मैं छोटी बच्ची थी तब मेरे पापा मेरे हीरो थे, और वो चाय के परम शौक़ीन व्यक्ति थे. उनकी नकल में चाय पीती और अक्सर कपड़े गंदे कर लेती. एक दिन माता श्री ने काफ़ी गर्म चाय पिला दी. उस दिन से ही चाय के साथ प्रेम कथा का अंत हो गया.
फिर मैं बड़ी हुई. चाय आकर्षित करती थी. पर माता श्री का फिर हुक्म.. "चाय पीने से काले हो जाते है. अच्छी भली लड़कियां ब्याहने को बैठी हैं.. काली हो गई तो कौन पूंछेगा.." फिर चाय कट.
(बात चुभने वाली है पर ये कड़वी हकीकत है कि बेटियों की मां ये ध्यान रखती हैं कि बेटी सुंदर, सुशिक्षित और सुशील बनी रहे. अरेंज मैरिज मार्केट जैसी है, और लड़का लड़की प्रोडक्ट हैं जिनके मूल्यांकन के अलग अलग पैरामीटर्स समाज ने निर्धारित कर रखे हैं. हम स्वयं क्रन्तिकारी हो सकते हैं पर अपने पेरेंट्स को क्रांति नहीं करवा पाते. हमारे यहाँ अब भी मम्मी की चप्पल रॉक्स.)
फिर मेरा विवाह एक धुर चायक्कड़ परिवार में हुआ. यहाँ दिन में तीन दफ़ा चाय की महफिल जमती, जिसमें मैं एलियन हुआ करती थी. पति ने कई बार कहा कि "चाय पियो चाय. अदमी हो जाओगी धीरे धीरे"
मैं हर बार उन्हें उतने ही प्यार से समझा देती "मैं अदमी हो गयी तो आपका क्या होगा?" (मतलब एकलौती पत्नी आदमी बन गई तो पति न बन जाएगी?)
खैर....
फिर हुआ यूँ कि एक बार मैं अपनी बहन के घर थोड़ा लम्बी अवधि के लिए गई. उसकी ससुराल में चाय के साथ कम से कम 10 तरह के स्नैक्स सर्व करने की परंपरा थी.
फिर क्या.....
दूर.. क्षितिज के पार..
नहीं हो जहां अन्य किसी का अस्तित्व.
बस तुम हो, मैं हूँ..
कुछ तुम्हारी कुछ मेरी व्यथाएं हों.
दोनों की अव्यक्त, अपूर्ण, स्वप्निल कथाएं हों.
श्यामल घटाओं के पीछे अलसाई,
धूप ज़रा हो मद्धम सी.
मेरी ज़ुल्फ़ों से अठखेलियां करती,
बारिश से पहले वाली रूमानी हवाएं हों..
तुमसे कहती रहूं मैं तुमसे कहने के लिए
मेरी बातें सागर भर, और तुम्हें
जो कहना था सब आ ठिठके तुम्हारे होठों पर..
तुम्हारी सुरमई पलकें और शर्मीली अदाएं हों..
कुछ पल के फासले कई घंटों में तय करें..
कुछ कदम ही सही, चलो हम साथ चलें..
घाव तुम्हारे दिल के, ज़ख्म मेरे भी सब,
भर दे जो पूरे,
एक दूसरे के लिए वो दवाएं हों..
और साथ में बेहिसाब प्यार डाल के
मेरी बनाई, तुम्हारी पसंद की वही चाय हो..
बस...
मिल जाए वही साथ वही एक चाय..
और वक़्त उसी लम्हें में थम जाए..
इसी एक पल में चलो कई ज़िंदगियाँ
जी लिया जाए..
फिर वक़्त बेवफा गुज़रे, न माने अगर,
तो ज़िन्दगी उस लम्हें में फिर थम ही जाए..
तुमको जी लिया एक पल भी, तो जाने का
अफ़सोस क्यों? जीवन रहे या जाए..
अगर स्वप्न है ये तो उम्र इसी नींद के
पहलू में कट जाए.
दे सकते हो क्या.. फिर ऐसी एक शाम..
एक ऐसी चाय...
✒️दिव्या मिश्रा राय