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स्वाधीनता के पुरोधा थे जोरावर सिंह बारहठ
भीलवाड़ा| स्वाधीनतासंग्राम में 1857 की क्रांति विफल होने पर अंग्रेज विश्व में ‘ब्रिटिश अजेय है’ की भावना स्थापित करना चाहते थे। उस समय राजस्थान में भी कई क्रांतिकारी आजादी के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने को तत्पर थे। इनमें केसरी सिंह बारहठ, उनके भाई जोरावर सिंह बारहठ एवं पुत्र प्रताप सिंह बारहठ भी थे। एक ही परिवार के पिता-पुत्र भाई ने स्वाधीनता के लिए कुर्बानी दी हो ऐसा यह अनूठा उदाहरण है। जोरावर सिंह बारहठ का जन्म 12 सितंबर 1883 को उदयपुर में हुआ। इनका पैतृक गांव भीलवाड़ा की शाहपुरा तहसील का देवखेड़ा है। उनके पिता कृष्ण सिंह बारहठ इतिहासकार साहित्यकार थे। उनके बड़े भाई केसरी सिंह बारहठ देशभक्त, क्रांतिकारी विचारक थे। इतिहास-वेत्ता किशोर सिंह भी उनके भाई थे। जोरावर सिंह की प्रारंभिक शिक्षा उदयपुर उच्च शिक्षा जोधपुर में हुई। उन्होंने महलों का वैभव त्यागकर स्वाधीनता आंदोलन को चुना। उनका विवाह कोटा रियासत के ठिकाने अतरालिया के चारण ठाकुर तख्तसिंह की बेटी अनोप कंवर से हुआ। उनका मन वैवाहिक जीवन में नहीं रमा। उन्होंने क्रांति पथ चुना और स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। रासबिहारी बोस ने लार्ड हार्डिंग्ज बम कांड की योजना को मूर्तरूप देने के लिए जोरावरसिंह प्रतापसिंह को बम फेंकने की जिम्मेदारी सौंपी, 23 दिसंबर, 1912 को वायसराय लार्ड हार्डिंग्ज का जुलूस दिल्ली के चांदनी चौक से गुजर रहा था। भारी सुरक्षा के बीच वायसराय हाथी पर प|ी के साथ था। चांदनी चौक स्थित पंजाब नेशनल बैंक भवन की छत पर भीड़ में जोरावर सिंह और प्रतापसिंह बुर्के में थे। जैसे ही जुलूस सामने से गुजरा, जोरावरसिंह ने हार्डिंग्ज पर बम फेंका, लेकिन पास खड़ी महिला के हाथ से टकरा जाने से निशाना चूक गया और हार्डिंग्ज बच गया। छत्र रक्षक महावीर सिंह मारा गया। इससे हुई अफरा-तफरी में एक ही एक गूंजी ‘शाबास’। आजादी के आंदोलन की इस महत्वपूर्ण घटना ने ब्रिटिश साम्राज्य की चूलें हिला दी थी। जोरावर सिंह प्रतापसिंह वहां से सुरक्षित निकल गए। इसके बाद जोरावरसिंह मध्यप्रदेश के करंडिया एकलगढ़ में साधु अमरदास बैरागी के नाम से रहे। वे कभी-कभार गुप्त रूप से प|ी परिजनों से मिलते थे। उनके कोई संतान नहीं थी। जोरावर सिंह को वर्ष 1903 से 1939 तक 36 वर्ष की अवधि में अंग्रेज सरकार गिरफ्तार नहीं कर सकी। 17 अक्टूबर, 1939 में उनका देहावसान हुआ। एकल-गढ़ (मप्र) में उनका स्मारक है।
12 सितंबर 1897 को सारागढी युद्ध हुआ
जिसमें 36 वीं सिख रेजिमेंट के 21 बहादुर सैनिको ने
10000 अफगान गुस्पेठियों को जो किले पर कब्जा करने की नियत से आये, उनमें से 900 को मौत के घाट उतार कर बलिदानी हासिल की
जब कि वो चाहते तो जान बचकर निकल सकते थे लेकिन भगोड़े होने से लड़कर बलिदान को चुना और 7 घंटे तक युद्ध किया।
ऐसे महान वीरों की शहादत को नमन
ऐसे महान वीरों के किस्सों को स्कूली किताबों में शामिल करना आवश्यक हैं।
जो चूक हमारे पूर्वजों ने की थी,
वह छत्रपति शिवाजी महाराज ने नहीं किया था ।
पकङे गए शत्रू को कभी भी जीवनदान नहीं दिया ..............
उलटा ऐसी मौत दी कि, मुगल निज़ाम भयाक्रान्त रहने लगे ।
सवा लाख सैनिकों की सेना लेकर आए अफज़ल खान का वध करने के उपरान्त उसका मस्तक काटकर,शत्रु के सामने से लाकर प्रतापगढ़ के द्वार पर लटका दिया था,
यह थे वीर शिवा जी 🚩🚩
यदि पृथ्वीराज चौहान ने ऐसा किया होता तो इतिहास कुछ और ही होता ।
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