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23 मई, 1984 भारत के लिए गर्व का दिन था। इस दिन बछेंद्री पाल 8,848 मीटर ऊंचे माउंट एवरेस्ट की चोटी पर तिरंगा फहराने वाली पहली भारतीय महिला बनी थीं।
इनके अलावा, एवरेस्ट फ़तह करने वाली एक और महिला हैं जिनके बारे में शायद ही आप जानते होंगे, नाम है संतोष यादव।
हरियाणा के रेवाड़ी जिले में जन्मीं संतोष यादव का जीवन संघर्ष भरा था। वह बताती हैं, "मैं अपने स्कूल के लिए घर से 5 किलोमीटर पैदल चलकर जाती थी। स्कूल में पक्की फ़र्श नहीं थी, न ही बैठने के लिए सीटें या गद्दे लगे थे, इसलिए हम बोरे लेकर जाते थे। रास्ते में अगर कभी बारिश होती थी, तो अपने बस्ते से ही खुद को भीगने से बचाते!”
उन्हें पढ़ाई का बहुत शौक़ था, लेकिन परिवार की मानसिकता इससे अलग थी। किसी तरह पिता को मनाकर, संतोष जयपुर के महारानी कॉलेज में पढ़ने चली गईं। वहां उनके हॉस्टल से अरावली की पहाड़ियाँ दिखती थीं।
“मैं अक्सर अपने कमरे से गाँव में रहने वाले लोगों को अरावली पर चढ़ते हुए देखा करती थी। लेकिन थोड़ी देर बाद वे गायब हो जाते। इससे मेरी उत्सुकता बढ़ती गई और मैंने भी पहाड़ पर चढ़ने के बारे में सोचा। फिर पैसे बचाए और उत्तरकाशी के नेहरू इंस्टीट्यूट ऑफ माउंटेनियरिंग में एक कोर्स के लिए एडमिशन लिया।"
- संतोष यादव।
उसके बाद उन्होंने भारत के इतिहास में अपना नाम स्वर्ण अक्षरों में दर्ज करवाया। वह 1992 और 1993 में दो बार और कांगसुंग से एवरेस्ट पर चढ़ने वाली पहली महिला बनीं।
ये रहा शिमला का सबसे फालतु इंसान।
इनका नाम है सरबजीत सिंह, लेकिन लोग प्यार से बॉबी के नाम से बुलाते हैं।
न तो इसको घर पे कोई काम है और न दूकान पर। कभी एंबुलेंस लेकर मरीजों को आई जी एम सी छोड़ने जा रहा होता है तो कभी मृत लावारिस लाशो को शमशान ले जाता है। शाम को लोग /पर्यटक जब माल रोड पर घूमते हुए मौसम का आनंद ले रहे होते है ये फालतू सरदार कैंसर हस्पताल में मरीजों को खिचड़ी का लंगर लगा के खिला रहा होता है।
सवेरे सवेरे उठकर लोग सैर पे निकलते है और ये सरदार मरीजों को बिस्कुट खिला रहा होता है। रविवार को भी इसको चैन नही होता माल रोड पर ब्लड कैंप लगा कर लोगो का खून निकाल रहा होता है। ऐसा है ये फालतू इंसान।
वाहगुरु ऐसे फालतू हर शहर में भी पैदा करो जी। इंसानियत को खत्म होने से बचाते है ऐसे फालतू लोग। गरीबो के आंसू नही टपकने देते ऐसे फालतू लोग। वैसे भी आजकल कोई फालतू नही जो दुसरो के लिए थोड़ा वक़्त निकाल सके। और दुसरो के बारे में सोच सके उनकी तकलीफों को अपना सके।
ओ फालतू बॉबी !!!हर शहर में क्यों नही पैदा हुआ ?
हर शहर में भी मरीज है , उन्हें कोई हाथ भी नही लगाता। वहां भी लावारिस लाशें लावारिस ही पड़ी रहती है भाई जी। वहां पर भी मरीजों को चाय बिस्कुट खिलाने वाला कोई तेरे जैसा फालतू बंदा चाहिए।
सरबजीत सिंह 'बॉबी' को सलाम !!!
एक सज्जन रेलवे स्टेशन पर बैठे गाड़ी की प्रतीक्षा कर रहे थे तभी जूते पॉलिश करने वाला एक लड़का आकर बोला~ ‘‘साहब! बूट पॉलिश ?’’
उसकी दयनीय सूरत देखकर उन्होंने अपने जूते आगे बढ़ा दिये, बोले- ‘‘लो, पर ठीक से चमकाना।’’
लड़के ने काम तो शुरू किया परंतु अन्य पॉलिशवालों की तरह उसमें स्फूर्ति नहीं थी।
वे बोले~ ‘‘कैसे ढीले-ढीले काम करते हो? जल्दी-जल्दी हाथ चलाओ !’’
वह लड़का मौन रहा।
इतने में दूसरा लड़का आया। उसने इस लड़के को तुरंत अलग कर दिया और स्वयं फटाफट काम में जुट गया। पहले वाला गूँगे की तरह एक ओर खड़ा रहा। दूसरे ने जूते चमका दिये।
‘पैसे किसे देने हैं?’ इस पर विचार करते हुए उन्होंने जेब में हाथ डाला। उन्हें लगा कि ‘अब इन दोनों में पैसों के लिए झगड़ा या मारपीट होगी।’ फिर उन्होंने सोचा, ‘जिसने काम किया, उसे ही दाम मिलना चाहिए।’ इसलिए उन्होंने बाद में आनेवाले लड़के को पैसे दे दिये।
उसने पैसे ले तो लिये परंतु पहले वाले लड़के की हथेली पर रख दिये। प्रेम से उसकी पीठ थपथपायी और चल दिया।
वह आदमी विस्मित नेत्रों से देखता रहा। उसने लड़के को तुरंत वापस बुलाया और पूछा~ ‘‘यह क्या चक्कर है?’’
लड़का बोला~ ‘‘साहब! यह तीन महीने पहले चलती ट्रेन से गिर गया था। हाथ-पैर में बहुत चोटें आयी थीं। ईश्वर की कृपा से बेचारा बच गया नहीं तो इसकी वृद्धा माँ और बहनों का क्या होता,बहुत स्वाभिमानी है... भीख नहीं मांग सकता....!’’
फिर थोड़ा रुककर वह बोला ~ ‘‘साहब! यहाँ जूते पॉलिश करनेवालों का हमारा समूह है और उसमें एक देवता जैसे हम सबके प्यारे चाचाजी हैं जिन्हें सब ‘सत्संगी चाचाजी’ कहकर पुकारते हैं। वे सत्संग में जाते हैं और हमें भी सत्संग की बातें बताते रहते हैं। उन्होंने ही ये सुझाव रखा कि ‘साथियो! अब यह पहले की तरह स्फूर्ति से काम नहीं कर सकता तो क्या हुआ???
ईश्वर ने हम सबको अपने साथी के प्रति सक्रिय हित, त्याग-भावना, स्नेह, सहानुभूति और एकत्व का भाव प्रकट करने का एक अवसर दिया है।जैसे पीठ, पेट, चेहरा, हाथ, पैर भिन्न-भिन्न दिखते हुए भी हैं एक ही शरीर के अंग, ऐसे ही हम सभी शरीर से भिन्न-भिन्न दिखाई देते हुए भी हैं एक ही आत्मा! हम सब एक हैं।
स्टेशन पर रहने वाले हम सब साथियों ने मिलकर तय किया कि हम अपनी एक जोड़ी जूते पॉलिश करने की आय प्रतिदिन इसे दिया करेंगे और जरूरत पड़ने पर इसके काम में सहायता भी करेंगे।’’
जूते पॉलिश करनेवालों के दल में आपसी प्रेम, सहयोग, एकता तथा मानवता की ऐसी ऊँचाई देखकर वे सज्जन चकित रह गये औऱ खुशी से उसकी पीठ थपथपाई...औऱ सोंचने लगे शायद इंसानियत अभी तक जिंदा है.....!!