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यही समाज आज विलुप्त होते जा रहा है कोई देखने वाला नहीं है ,,,
संथाल विद्रोह आप जानते होंगे पर आपने कभी पहाड़िया विद्रोह सुना है ? सबसे शुरुआती संघर्षों में एक जो 1772 से 1782 तक चला था
अंग्रेजो ने बंगाल विजय के बाद अपना बड़े स्तर पर विस्तार किया था जिसके कारण बिहार और झारखंड का एक बड़ा हिस्सा अंग्रेजो के अधीन आ गया
झारखंड के उत्तर पूर्वी इलाके पाकुड़, राजमहल में पहाड़िया बड़ी मात्रा में रहते थे, जो बाद में संथाल परगना बन गया, वहां अंग्रेजो ने मनसबदार नियुक्त किए
वैसे तो शुरू में पहाड़ियों से मनसबदारो का व्यवहार अच्छा था किंतु जल्द ही खटास पड़ गई, पहाड़ियों के मुखिया की उन्होंने हत्या करवा दी
जिसके बाद पहाड़िया विद्रोह शुरू हो गया जिसकी शुरुआत रमना आहड़ी ने किया, ये कई चरणों में चला
उस समय ये इलाका वन संपदा से परिपूर्ण था, पग पग पर वृक्ष थे, जिससे रूबरू होने के कारण उन वनवासियों ने अंग्रेजो की नींव हिला दी
ये इसलिए भी महत्वपूर्ण था क्योंकि ये क्षेत्र बंगाल से सटा हुआ था और यहां विद्रोह मतलब बहरी कानो में गूंज के बराबर थी
लगातार हुई पराजय से अंग्रेज पूरी तरह से बौखला चुके थे उन्होंने कई प्रकार के भत्ते देने की घोषणा की लेकिन फिर जगन्नाथ देव ने आंदोलन को गति दे दी इसी प्रकार अंग्रेजो के सारे दांव उलट चुके थे
वे अपनी सुगमता के लिए सभी पेड़ो को काटकर इस क्षेत्र को समतल करना चाहते थे क्योंकि यहां से उनका मार्ग पूरा झारखंड और फिर केंद्रीय राज्यो का द्वार खुलता था, इसके अलावा उन्हें यहां के खनिज संपदाओं की भी जानकारी धीरे धीरे हो चली थी
इस क्षेत्र को बाद में दामिन ए कोह अर्थात अंग्रेजों की संपत्ति घोषित कर दिया गया जिसके विरोध में महेशपुर की रानी सर्वेश्वरी ने 1881 से 82 तक मोर्चा संभाला
वास्तव में हो ये रहा था कि पहाड़ियों को अंग्रेज अपनी आधुनिक हथियारों के बल पर हरा देते थे लेकिन कुछ समय के बाद वापस वे उन क्षेत्रों पर कब्जा कर लेते थे और अंग्रेजो को मार भगाते थे
पहाड़िया इन पेड़ों की पूजा करते थे और इसे काटना वे पाप समझते थे जिससे अंग्रेज उनसे ये काम नहीं करवा पा रहे थे, बाद में उन्होंने संथालियो को बसाया, जिसके बाद पहाड़िया इस क्षेत्र में अल्पसंख्यक हो गए
हालांकि अंग्रेजो की क्रूर नीतियों के कारण बाद में संथाल विद्रोह हुआ जिसे झारखंड में हुल दिवस के रूप में याद किया जाता है
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